Advertisement

हमारी ‘आधुनिक’ कुरीतियाँ

भारत में सदियों से मौजूद सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध हुए स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान अथक संघर्ष का एक विस्तृत इतिहास पाया जाता है। सती प्रथा से मुक्ति, वेदों की ओर प्रस्थान, दकियानूसी पंथों का त्याग, वैज्ञानिक प्रवृति का विकास—सामजिक निर्माण की ये तत्कालीन ‘विधायें’ देश के महापुरुषों के दर्शन, निष्ठा और कर्तव्य के प्रति सजगता को दर्शाती हैं जिनकी चर्चा बंगाल, बनारस, अलीगढ़ से लेकर शिकागो और कनाडा तक थी। यूं तो देश का स्वतंत्रता संघर्ष वस्तुत: राजनैतिक और आर्थिक कारकों को स्थिर करने तथा जन-केन्द्रित विकास की ओर अभूतपूर्व प्रयत्न था किन्तु इस संघर्ष के दौरान ‘सामाजिक’ और ‘नैतिक’ मूल्यों पर इतना बल दिया गया कि आज स्वतंत्रता संग्राम के विमर्श में राष्ट्र जागृति, नवजागरण तथा सामाजिक सुधार आन्दोलन का अध्याय अलग से पाया जाता है। राजा राममोहन राय जैसे महापुरुषों द्वारा भारतीयों में नैतिक उत्थान पर बल दिए जाने के कुछ तो कारण रहे होंगे अन्यथा किसी की पत्नी को पति की अर्थी के साथ जलाया जाए या नहीं जलाया जाए, इससे लाटसाहब की सेहत और हुकूमत पर क्या असर होने वाला था !!

समाज में कुरीतियाँ हैं तो सुधार आन्दोलनों की भी ज़रुरत होती है। कुरीतियों को लेकर समाज में  यह ग़लतफ़हमी रहती है कि कुरीतियाँ भूतकाल में पायी जाती हैं और इतिहास के पन्नों तक ही सीमित रहती हैं। सामान्य धारणा हैं कि तथाकथित ‘आधुनिक’ वर्तमान से उनका कोई सम्बन्ध नहीं और अब वे पनपेंगी भी नहीं ! अर्थात अंग्रेज़ी में कहें तो हमारा वर्तमान ‘फ़ूल-प्रूफ़’ है। भुला दिया जाता है कि हमारी आदतें ही हमारी रीत बनती हैं और जब वे बुरी हो जाती हैं तो उन्हें कुरीतियाँ कहा जाता है। कुरीतियों के कई स्वरुप हो सकते हैं जैसे राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक। अमेरिका तथा यूरोप के थोपे हुए पूंजीवादी और वर्चस्ववादी परिवेश में आज हमारा ध्यान केवल राजनैतिक और आर्थिक कुरीतियों की ओर रहता है जिनमे सबसे गर्म मुद्दा ‘भ्रष्टाचार’ का रहता है। इस सम्बन्ध में विधेयक, अधिनियम, अदालत, लोकपाल, कालाधन सरीखे वही शब्द मस्तिष्क में रहते हैं जिनका सरोकार ‘माया’ और ‘वर्चस्व’ से है। इतनी फुर्सत नहीं मिलती कि देश के नैतिक और सामाजिक पतन के बारे में कुछ सोचा जाए! ‘सामाजिक’ शब्द की बात की जाए तो यहाँ इसका अर्थ ‘जन-धन योजना’ अथवा ‘जन वितरण प्रणाली’ जैसे कथित सामाजिक न्याय वाले ‘सरकारी’ शब्दों के रूप में ना लिया जाता है। समाज किसी भी ‘प्रणाली’ अथवा ‘योजना’ से बढ़कर है।

आज भारत एक लोकतांत्रिक देश के रूप में जाना जाता है और एक लोकतंत्र की दक्षता और कामयाबी इसी बात में है कि वहां महिला, अल्पसंख्यकों तथा पिछड़ों को कितना मान दिया जाता है। वर्तमान में महिला अस्मिता पर बहुत कुछ लिखा, पढ़ा और कहा जा रहा है लेकिन महिलाओं की स्थिति में कोई स्पष्ट बदलाव हमें  क्षितिज पर नज़र नहीं आता। दिल्ली में हुए बदतरीन जुर्म के बाद अनेकों की राय यह थी कि महिलाओं की वेश-भूषा, वस्त्र-सज्जा इत्यादि इसके लिए उत्तरदायी हैं। लेकिन इस भ्रम को कुछ हफ़्तों पहले हुई उस घटना ने तोड़ दिया जहाँ एक नन को प्रताड़ित किया गया। स्पष्ट है कि कमी हमारे समाज के मनोविज्ञान में है जिसका निर्धारण हमारे पर्यावरण से होता है। समाजशास्त्र और लोक-प्रशासन की धारणा में पर्यावरण एक वृहत कारक है जिसमे परिवार, मोहल्ला, कॉलेज, कारखाना, दफ़्तर, सड़क, बाज़ार, मीडिया, बॉलीवुड, साहित्य, मकतब, मंदिर, मस्जिद जैसे असंख्य छोटे-छोटे कारक आते हैं। पर्यावरण मनोविज्ञान निर्धारित करता है जो फलत: समाज में मूल्यों के ‘संस्थानीकरण’ का परिवेश एवम कलेवर तय करता है। समाजशास्त्री टालकोट पारसंस इस संस्थानीकरण को दो तरीक़ों से अस्तित्व में लेकर आते  हैं, पहला ‘सामजिक प्रक्रिया’ तथा दूसरा ‘सामाजिक संरचना’। जब प्रक्रियाएं अनैतिक, पाश्विक और जघन्य हों तो उत्तम सामाजिक संरचना की आशा करना आसमान से बरसती बूंदों को पकड़कर ऊपर उठने की इच्छा भर करना है!

हाल ही में रिलीज़ हुई एक बॉलीवुड फ़िल्म के चित्र तथा चलचित्र सोशल मीडिया, यूट्यूब इत्यादि पर बहुत चर्चित हैं जिसमे भारतीय मूल की एक विदेशी अदाकारा तथा सह-कलाकार के कामोत्तेजक दृश्यों की भरमार है जिनकी हद सम्भोग सरिस दृश्यों तक पहुँच गयी है! ऐसे चलचित्र किस तरह के मनोविज्ञान का सृजन करेंगे? और जब उस मनोविज्ञान के परिणाम हमारे सामने आयेंगे तो हम रेत में मुंह छिपाने के अलावा कुछ नहीं कर पाएंगे! एक युवक अमुक फ़िल्म देखकर सिनेमा से बाहर निकलेगा तो नैतिकता के वनवास और जैविक कारकों के प्रभाव में शर्मसार करने वाले कारनामे अन्जाम नहीं देगा तो और क्या करेगा! फिल्मों को  कला की श्रेणी में रखा जाता है; ऐसे में निर्धारित करना होगा कि मदर इण्डिया, मेरे महबूब, प्यासा, गाइड और इस उत्तेजक फ़िल्म में से कौन सी फ़िल्म कला की श्रेणी में रखे जाने योग्य है? यदि कोई फ़िल्म कला की अहर्यता को नहीं पहुँचती तो वह सामाजिक प्रक्रिया में जगह क्यों पा रही है? और क्यूँ एक विशेष कुंठा का ‘संस्थानीकरण’ समाज में किया जा रहा?  बहुत बुद्धिजीवियों को बापू की बुराई करते हुए देखा जा सकता है,  किन्तु इस अनैतिकता पर उन्हें कभी कुछ बोलते नहीं देखा!

इसके अलावा, देश के अख़बारों की वेबसाइट खोलने पर वहां आपको उनमे से अधिकतर में ‘अठारह प्लस’ का कॉलम मिलेगा जो बिना किसी आयु परीक्षण के सर्वजन-सुगम बना दिया जाता है और एक नाबालिग़ को भी बेरोक-टोक सुलभता (एक्सेस) प्रदान करता है। इस तरह बच्चों और युवाओं की दिमाग़ी ज़मीन में जिस प्रकार के बीज बोये जा रहे हैं उसकी फसल निसंदेह भयावह रूप से कटेगी और दोषार्पण पुनः महिलाओं पर ही किया जाएगा। ये सब हमारे आज के समाज की कुरीतियाँ हैं जिन्हें देश के ज़िम्मेदार ओहदों पर बैठे लोग तो तवज्जो ही नहीं देते, साथ ही हम भी बतौर नागरिक नज़रंदाज़ कर देते हैं! लव-जिहाद का ढिंढोरा पीटने वाले संस्कृति के कथित रखवाले भी आजकल ‘विकास की भांग’ में चूर हैं ! कोई भी सच्चा भक्त देवभूमि पर हो रहे मूल्यों के इस अवमूल्यन को कैसे पचा सकता है—यह दिखावे की भक्ति पर सवाल खड़े करता है!

पिछले सप्ताह इण्डियन एक्सप्रेस में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के साथ देश भर में होने वाले बरताव से सम्बन्ध रखने वाली एक ख़बर छपी। ख़बर के मुताबिक़ अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय तथा देशभर में फैले भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थानों (आई.आई.टी.) के कुछेक पूर्व छात्रों ने एक ऑनलाइन हाउसिंग पोर्टल बनाया है जहाँ मकान, ज़मीन जैसी सम्पत्ति की ख़रीद-फ़रोख्त आसानी से की जा सकती है। उन लोगो को यह पोर्टल इसलिए बनाना पड़ा क्योकि देश के महानगरों और दूसरे छोटे शहरों में जब वे नौकरी करने जाते हैं तो उन्हें रिहाइश के लिए किराए पर कमरा भी नहीं मिल पाता। वजह यह कि वह मुसलमान होते हैं! पोर्टल पर सम्पत्ति का क्रय-विक्रय कोई भी कर सकता है चाहे वह मुस्लिम हो या ग़ैर-मुस्लिम किन्तु पोर्टल की टैग-लाइन इसे बेझिझक ‘भारत का पहला मुस्लिम हाउसिंग पोर्टल’ बताती है। जहाँ तक नैतिकता और सामाजिक समरसता की बात है, यहाँ दो बातों पर गौर करना बहुत ज़रूरी है। पहली बात यह कि अल्पसख्यकों, विशेषकर मुस्लिमों, के विरुद्ध जो सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक द्वेष भारतीय समाज में बुरी तरह घर कर गया है उसकी जड़ें हम भारतवासियों के नैतिक पतन से ही जुड़ी हैं। तरक्की की राह पर चलते हुए हम मंगल ग्रह तक पहुँच गए, विश्व की सबसे बड़ी उभरती हुई अर्थव्यवस्था बन गए लेकिन ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना को अपने मुहल्लों में ही नहीं जी पाए तो फिर इस उक्ति को विश्वभर में चरितार्थ कैसे कर पाएंगे? दक्षिणपंथी कट्टरता और अतिवाद ने सामाजिक ताने-बाने को पूर्णरूप से तार-तार कर दिया है। सम्प्रदायों ने धर्म का अधिग्रहण कर लिया है, धार्मिकता हताश है और साम्प्रदायिकता का बोलबाला है। बापू के अवसान के बाद देश के कई हिस्से कई बार नोआखली बने लेकिन बापू जैसी नैतिकता की अदम्य आत्मा कभी सामने न आई!

दूसरी बात, पूँजी और वर्चस्व के इस भयंकर दौर में अपने उत्पाद, विचार, शब्द और अन्य चीज़ों को अत्यधिक लोकप्रिय तथा बिकाऊ बनाने के लिए सबसे बेहतर तरीक़ा है कि उसे ‘संप्रदाय’ से जोड़ दिया जाए; उसे ‘संप्रदाय’ के नाम पर बेचा जाए। अमूमन सफ़र करते हुए सड़क पर लगे होर्डिंग्स और अखबारी विज्ञापनों पर नज़र जाती है तो आने वाले भारत की भयावह तस्वीर सामने आ जाती है। रीयल इस्टेट कम्पनियाँ आज खास सम्प्रदायों के लिए हाउसिंग सोसाइटी और कॉलोनी बनाती हैं। एक विज्ञापन कहता है कि हम आपको कॉलोनी के प्रांगण में ‘मन्दिर’, ‘सत्संग स्थल’ इत्यादि की सुविधा दे रहे हैं। आप सड़क पर थोड़ा आगे चलेंगे तो पिछले होर्डिंग से बड़ा होर्डिंग दहाड़ कर आपसे कहेगा कि हमारे पास ‘मस्जिद’ और आपके बच्चों के लिए ‘दीनी दर्सगाह’ का पुख्ता इंतेज़ाम है। इस तरह गंगा-जमुनी तहज़ीब की गंगा और जमुना अब पृथक की जा रही हैं। एक वक़्त आएगा कि जब प्रेम, सौहार्द की हरियाली लाने वाली ये धाराएँ आग का दरिया बना दी जाएँगी। शोले फ़िल्म में अब कोई बसन्ती किसी इमाम साहब को मस्जिद की सीड़ियों तक छोड़कर नहीं आएगी! अब ग़ैर-मुस्लिम माएँ मुहल्ले के मुस्लिम बुजुर्गों से अपने बच्चों पर दम करवाने के लिए सांयकाल की नमाज़ के बाद मस्जिद के दरवाज़ों पर प्रतीक्षा नहीं करेंगी! और मुस्लिम बच्चे अपनी दादी-नानी की ऊँगली पकड़कर रामलीला देखने नहीं जायेंगे! कहीं ऐसा तो नहीं कि इण्डियन एक्सप्रेस में जिस पोर्टल का ज़िक्र किया गया है वो सम्पत्ति ‘व्यापारियों’ के इसी नैतिक पतन के दो क़दम आगे का ‘अनैतिक संस्थानीकरण’ है! संप्रदाय के नाम पर उत्पाद को लोकप्रिय बनाया जा रहा है, साल भर की कम अवधि में पोर्टल हज़ारों अनुसरण करने वाले लोग जुटा चुका है और एक लाख से अधिक बार पोर्टल को पढ़ा जा चुका है!

उपरोक्त पोर्टल के संयोजकों से पूछना चाहिए कि सर सय्यद अहमद खां की दर्सगाह में शिक्षा हासिल करने के बाद भी पोर्टल को यह आपत्तिजनक स्वरुप देना कितना तार्किक और सर सय्यद की शिक्षाओं के कितना अनुरूप है? इसमें कोई संदेह नहीं कि अल्पसंख्यकों को ग़ैर की नज़र से देखा जा रहा है किन्तु इसका यह मतलब भी नहीं की एक सुशिक्षित, तहज़ीब-याफ़्ता व्यक्ति आदर्शों को भूल कर अनैतिकता की राह  चल पड़े! सर सय्यद, मौलाना मुहम्मद अली जौहर, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और मौलाना हसरत मोहानी के उसूलों पर अमल करके भी समस्या का हल निकाला जा सकता है। पोर्टल की टैग-लाइन सर सय्यद के सभी प्रयासों पर बहुत गहरा प्रहार है। इतिहासकार प्रोफेसर खलीक़ अहमद निज़ामी ने 1987 में अलीगढ़ पत्रिका में ‘सर सय्यद एंड नेशनल इंटीग्रेशन’ शीर्षक से लिखे अपने लेख (जो गूगल पर आसानी से उपलब्ध है) में सर सय्यद की जिस संरचनात्मक और मैत्रीपूर्ण प्रवृति का ख़ाका खींचा है, वो पोर्टल की टैगलाइन से पूरी तरह ध्वस्त हो जाता है! अफ़सोस है कि हिन्दू-मुस्लिम को दुल्हन (हिन्दुस्तान) की दो आँखे बताने वाले सर सय्यद को अभी पूरी तरह समझा नहीं जा सका है।

Post a Comment

0 Comments