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सांप्रदायिक हलाहल !!

हांलाकि ज़मीन तो बहुत पहले से ही तैयार की जा रही थी किन्तु 1903 में अंग्रेजी हुकूमत ने एक बीज बोया था जिसकी पहली फसल 1905 में बंगाल के विभाजन के रूप में कटी। खुदा भला करे मॉरले और मिन्टो का जो इस धरा पर नमूदार हुए और 1909 में इसमें उर्वरक डाले और साम्प्रदायिकता के ज़हरीले पानी से सींचा। इसके दौरान बारदोली,  माप्पिला जैसे छोटे-छोटे लेकिन सशक्त संघर्षो को इसी ज़हर के बल पर निष्क्रिय कर दिया गया।  समय बीतता गया और 1947 आ गया। नतीजा ये हुआ कि 14 अगस्त 1947 को भारत से उसकी सभ्यता के गलियारे हमेशा के लिए छीन लिए गए और इन "नापाक" मंसूबो को नाम दिया गया - "पाकिस्तान"!!! सिन्धु को गंगा से जुदा किया गया, कराची के कलेजे को दिल्ली के दिल से अलग कर दिया गया, इकबाल के क़ौमी तराने को 'वन्देमातरम' से जो निस्बत थी, वो 'षणयन्त्रों' के हिन्द महासागर में नमक के साथ घुल गयी।  अहमद फ़राज़ का ताल्लुक़ जिगर मुरादाबादी से तोड़ दिया गया, और राम को "इमाम" कहने वाले इक़बाल अब मुसलमानों के हो चले थे जबकि फ़िराक़ ग़ैर-मुस्लिमों के !! इन्तेहा यहाँ तक पहुँच गयी कि खुद को "मुसलमान" कहने वालों ने बाबा फरीद को उनके भांजे साबिर कलियरी से पृथक कर दिया, गोया इंसानियत का क़त्ल कर दिया गया ! 1947 में हम आज़ाद तो हुए लेकिन "बरबाद" ज़्यादा किए गए।

1903 का बीज अब विशाल वट-वृक्ष हो चला था। वक़्त के साथ इसे सींचने वालों की जमात भी तैयार हो गयी थी।  भारत में ये ज़िम्मा सावरकर, गोडसे जैसों को मिला तो पाकिस्तान में हाफ़िज़ सईद जैसे वहशियों और धर्म के कथित ठेकेदारों की नसले पैदा हुईं जो ईद के दिन भी 'मस्जिदों' में 'मुसलमानों' की लाशें बिछाने से भी नहीं हिचकिचाते। क्यूकि ये सब वो 'हुकूमते इलाहीया' के स्वप्न को धरातल पर लाने के लिए करते हैं। वो इस 'जहल' (अज्ञानता ) को 'जहद' (पवित्र संघर्ष) कहते हैं यानि उनके माबूद की मर्ज़ी। अभी पेशावर में चर्च वाली घटना को ध्यान में रखा जाये तो यह कहना हक़ होगा कि ये लोग इतने मलेच्छ हैं कि अपने बदतरीन और वहशी कारनामों को "जिहाद" बताते हैं ! और कहते हैं कि ये अमरीकी ड्रॉन हमलों में मरे गए मुसलमानों के ख़ून का 'बदला' है। इन प्रेतात्माओं से कोई जाकर पूछे कि तुम कौन होते हो किसी को 'बदला' या 'जज़ा' देने वाले? पुछा जाये कि 'मालिक-ए-यौमिद्दीन (बदले वाले दिन का मालिक) सिर्फ ईश्वर है, क्या ये भी नहीं पढ़ा क़ुरआन में ? ये खुद ज़माने के खुदा बन बैठे हैं।

ये 'हुकूमत-ए-इलाहिया' की बात करते हैं जो अपने आप में एक संकुचित, संकीर्ण और संक्रमित मानसिकता का द्योतक है और यह भी दर्शाता है कि ये कुछ भी हो सकते हैं, किन्तु 'मुसलमान' नहीं।  सच्चे मुसलमानो के लिए 'हुकूमत-ए-इलाहिया' क़ुरआन के तीसरे अध्याय की "आयत-उल-कुर्सी' से अपना अस्तित्व तलाशती है जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सम्प्रभुता, सल्तनत और अधिकार उसी एक 'परमात्मा' को सौंपती है जो क़ुरान में यह निर्देश देता है-" ऐ मुहम्मद! तुम (इन लोगों से) कहो कि तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन है और मेरे लिए मेरा दीन"। अगर आज क़ौम कि बेटियां तालीम को आम करती हैं तो इन अधर्मियों की खोपड़ी में खुजली होती है और ये आरोप लगाया जाता है कि ये लड़कियां शरीयत को अपने हाथों में ले रही हैं।  लेकिन जब ये खुद चर्च में सैकड़ों बच्चों की जान ले लेते हैं तो आप को यह नहीं बताते कि इनका ये कुकृत्य कौन सी हदीस और क़ुरान का हिस्सा है!!

इन जैसो के कई गिरोह आज भारत में हैं जो कभी भगवा रंग चुनते हैं, कभी काला, कभी पीला और कभी हरा।  गोधरा, मुरादाबाद, मेरठ, भागलपुर, मुज़फ्फरनगर जेसे कई ऐज़ाज़ात और उपलब्धियां इनके "दीर्घाघाती दर्शन' की गाथाएं सुनते हैं। ऐसी घटनाये दो "सम्प्रदायों" की अंधता के चलते होती हैं, दो "धर्मों" की वजह से नहीं !इसे "धर्मान्धता" कहना उचित है किन्तु "धार्मिक अंधता" नहीं !!  ये अंध सम्प्रदाय आवेशों में बहकर यह तय नहीं कर पाते कि वास्तविक धर्म क्या है?

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