जनसंचार और पत्रकारिता के सशक्तिकरण के पश्चात अब ई-जर्नलिज़म का दौर आ गया है. सिकुड़ते हुए आधुनिक विश्व में ज्यों-ज्यों पत्रकारिता का वर्चस्व बढ़ा है; त्यों-त्यों विरोधाभास के 'रियेलिटी शो' भी आम हो गए हैं. हर रोज़ नई सुबह का नया अखबार एक नए विरोधाभास की दास्ताँ के साथ दरवाज़े के ऊपर लगे धूल चढ़े रोशनदान से गुज़रकर मेरे समक्ष आता है, कल भी ऐसा ही हुआ ! और इस बार विरोधाभास की दास्ताँ इतनी विचित्र थी कि पेज के एक ओर तो सरकारी विज्ञापन सरकार की शेखचिल्लीनुमा तस्वीर पेश कर रहा था, वहीं पेज के दूसरी ओर सुनील जी की लौहारी चोट उस विज्ञापन के ताने-बाने को तार-तार करने में पूरी तरह सक्षम थी. कल (१२ दिसंबर) दैनिक 'जनसत्ता' के पृष्ठ पांच पर ग्राम विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा जारी विज्ञापन में करोड़पति सुशील कुमार तथा ग्रामीण अंचल के कुछ लुभावने "लेंडस्केप (एस्केप)" दर्शाए गए थे. कदाचित विज्ञापन इंगित करना चाहता था कि 'मनरेगा' के चलते सुशील कुमार को कम्प्यूटर ऑपरेटर की नौकरी मिली और वह करोड़पति बन गए. यानि न होता मनरेगा, न होते सुशील करोड़पति. किन्तु उसी पृष्ठ के दूसरी ओर सुनील जी का लेख कुछ और लिख चुका था. बकौल सुनील: "बहुप्रचारित मनरेगा में तो सरकार न्यूनतम मजदूरी भी देने को तैयार नहीं है, इसलिए उसकी मजदूरी की दर इस ग़रीबी रेखा के काफी करीब है. चूंकि यह ज़िंदा रहने के लिए काफी नहीं है, इसलिए मजबूरी में एक परिवार के दो-तीन सदस्य मजदूरी करते हैं और बच्चो को भी काम में लगाया जाता है."
कैसी विडंबना है कि विज्ञापन सृजक विभाग ने इस ओर ध्यान नहीं दिया कि यदि ग़रीब और अभावग्रस्त सुनील को इच्छानुरूप अध्धयन के साधन मिल जाते तो वह भी आज एक प्रशासनिक अधिकारी होते. ऐसे अनगिनत विरोधाभास हमारी ज़िन्दगी में रोज़ाना आते हैं लेकिन हम तवज्जो नहीं देते, आखिर हमें इनसे क्या लेना-देना? सोचता हूँ- कदाचित यह मुमकिन हुआ होता कि उस विज्ञापन में सुनील जी की सोलह आने सच बात लिखी गयी होती, १९९७-२००९ के बीच हुई २,१६,५०० कृषक आत्महत्याओं को दर्शाया गया होता, सूखे का काल झेलती दक्कन की फटती छाती को 'एस्केप' करके लुभावने 'लेंडस्केप' ना दिखाए गए होते.
यह काफी मुश्किल काम है कि मुख्यमंत्री शीला दीक्षित द्वारा जारी की गयी 'द देहली स्टेटिसटिकल हैन्डबुक-२०११' में दिल्ली को देश का तीसरा अमीर राज्य बताने के बजाये यह दर्शाया गया होता कि देश में सबसे ज्यादा बलात्कार भी 'दिल वालो की दिल्ली' में ही होते हैं; यानि नारी का सबसे ज्यादा अपमान दिल्ली में होता है. कितना न्यायपूर्ण होता कि प्रकाशन विभाग, भारत सरकार द्वारा जारी की गयी वार्षिकी ' भारत २०११' के आवरण पृष्ठ पर राष्ट्रमंडल खेलों की अपार सफलता का बखान करने वाला चित्र न दिखाकर यह दर्शाया जाता कि दिल्ली सरकार ने किस तरह ज़बरदस्ती जुग्गी-झोपड़ियाँ मिटा कर २-२.५ लाख ग़रीबो को बेघर किया ( विष्णु नागर, जनसत्ता, ३ नवम्बर, २०१०) और किस तरह खेलों के दौरान हजारो युवा महिलाओं को विदेशी पुरुषों की यौन पिपासा मिटाने के लिए तस्करी करके दिल्ली भेजा गया (रुचिरा गुप्ता, जनसत्ता, ५ नवम्बर २०१०).
अक्सर देखा जाता है कि सरकारी बसों में कुछ आरक्षित सीटों पर अंकित होता है -'विधायक सीट, माननीय मंत्री सीट'; लेकिन यह एक प्रत्यक्ष विरोधाभास है कि आज तक इन सीटों पर हमने किसी मंत्री या विधायक को सफ़र करते हुए नहीं देखा. आमतौर पर लोग सरकारी स्कूलों की शिक्षा को आँख तले नहीं लाते क्योंकि वहां शिक्षा प्रणाली में उत्कृष्टता के बजाये केवल दिखावे पर ध्यान दिया जाता है. आखिर क्यूँ एक जिला अधिकारी अथवा मंत्री अपने बच्चे को 'डीपीएस' जैसे मंहगे स्कूलों में पढ़ाता है, उन सरकारी स्कूलों में नहीं जहाँ उनके लाडले के लिए 'मिड डे मील' यानि सरकार द्वारा प्यार से परोसे गए 'सरकारी टिफिन' का माकूल इंतेज़ाम है. आज का युवा नेता एक तरफ तो ग़रीब भारत का प्रधानमंत्री बनने का ख़्वाब देखता है वहीं दूसरी ओर वह उच्च शिक्षा के लिए देश के बहार जाता है और देश की ग़रीबी से बेखबर ग़ैरमुमालिक की अमीरी में डूबा रहता है. हर जगह विरोधाभास है.
सरकारी योजनाओं को 'लक्षित' करना और यह कहना कि सरकार कि हर नीति 'सर्वजन हिताय- सर्वजन सुखाय' और बापू के 'पूर्ण स्वराज' की ओर तत्पर है, आसमान से बरसती बूंदों को पकड़कर पुन: आकाश में ऊपर उठने की इच्छा रखने के बराबर है.
ऐसे न जाने कितने विरोधाभास आते रहेंगे और अख़बारों में जगह पाते रहेंगे!!
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