
लगभग चौबीस साल की एक पढ़ी-लिखी, कमसिन, नौजवान और सुशील स्त्री को उसका पति तलाक़ दे देता है। शादी
हुए एक साल हुआ था; गोद में एक मासूम बच्ची है। यह एक घटना है जो किसी
प्रकार मेरी दृष्टि में आई, वैसे तो पूरा देश इस तरह के नासूरों से बीमार
है। हर बार की तरह इस बार भी एक औरत ही पीड़ित है। मरयम की बेटी फिर असहाय
है। हमेशा सीता ही परीक्षाओं से गुज़रती है; उस समय अग्नि परीक्षा थी, अब
अश्रुपरीक्षा है, अश्रु बहेंगें जल की धार बनकर, एक समंदर बन जायेगा आँसुओं
का जिसके दोनों ओर पुरुष की जय-जयकार होगी, एक तरफ़ राम की शक्ल में तो
दूसरी तरफ रावण के रूप में !!
स्त्री
पुरुष की अर्धांग्नी है !! अच्छा मज़ाक़ है !! कोई भी आधे अंग के बिना जी
सकता है क्या ? नहीं जी सकता ना !! तो फिर इस 'अर्धांग्नी' को जीवन की
नय्या से उठाकर मँझधार में क्यूँ फेंक दिया जाता है? पति-पत्नी के रिश्ते
इज़राईल-फिलिस्तीन से पेचीदा तो हो नहीं सकते, तो फिर इतनी नाउम्मीदी क्यूँ
??
किसी भी स्त्री को जब इस दौर से गुज़रना पड़ता है तो उस पर सवालों
के पहाड़ टूट पड़ते हैं, सवाल जो सोने नहीं देते, जीने नहीं देते। जैसे पति
से विरक्ति का कारण, लोग क्या सोचेंगे? मुझे कौन अपनाएगा? आगे जीवन कैसे
गुज़ारूँगी, समाज ताने मारेगा तो कैसे सामना करुँगी? मुझ अबला को बल कहाँ से
मिलेगा? वग़ैरह- वग़ैरह। मेरा मानना है कि हमारे इर्द-गिर्द जो घटनाएँ घटती
हैं उनका निर्धारण, नियंत्रण और अभियंत्रण परिस्थितियों के हाथ में होता
है। यही बात प्रबंधन और लोक प्रशासन की इकलौती महिला विचारक मैरी पार्कर
फ़ॉलेट ने भी कही थी कि कोई भी तब तक शोषक अथवा शोषित रहता है जब
तक परिस्थितियां इजाज़त दें। परिस्थितियाँ सब कुछ निर्धारित करती हैं और
हमारा समाज इन परिस्थितियों को हमारे लिए उत्पन्न करता है। समाज ही एक
तलाक़शुदा स्त्री को सोचने पर मजबूर करता है कि "मुझे कौन अपनाएगा !!!"
धिक्कार है ऐसे समाज पर जो पुरुष से तो कुछ पूछे ही न और उल्टा स्त्री
को आज भी 'भोग' और 'विलासिता' की वस्तु मानता है। स्त्री के मन में यदि
उपरोक्त प्रश्न बार बार कौंधता है तो समझ लीजिये कि आपका समाज अपाहिज है !!
भारतीय संस्कृति के नाम पर सदियों का जो आपका अर्जन है वो एक छलावा है,
आपने एक दोषपूर्ण और ऐब वाली संस्था का निर्माण किया है जिसे आप "समाज"
कहते हैं !! स्त्री के साथ "झूठन" सरीखा बर्ताव करना समाज की लकवाग्रस्त
प्रवृत्ति को दर्शाता है।
स्त्री के सम्मान की बात आती है तो हमारा
तथाकथित "समाज" और पश्चिमी देशों की भोंडी व्यवस्थाएँ आज एक ही मक़ाम पर खड़ी
हैं। एक तरफ हमारा समाज स्त्री को इस लिए पैदा करता है ताकि वो कल हमारे
अपने हाथों से "निर्भया" बनाई जाये, कल किसी खाप वेदी पर 'प्रतिष्ठा' की
'देवी' के लिए बलि चढ़ाई जाये या फिर उसको सोनी सोरी बनाकर असहनीय यातना से
रूबरू कराया जाये। वहीँ दूसरी तरफ़ पश्चिम ने सिखाया है कि किस तरह स्त्री
को पूंजीवादी व्यवस्था में "इस्तेमाल" किया जाये, किस तरह मैक-डॉवेल्स और
बैगपाइपर के उत्पाद की बिक्री हेतु उनको अर्द्धनग्न किया जाये। पश्चिम को
महिला का सशक्तिकरण भौं बनवाने में नज़र आता है तो हमारा समाज अभी चूड़ी और
कंगन में ही अटका हुआ है। इनके अलावा एक अमला और है नारीवादियों का जो
चीख़ने-चिल्लाने के अलावा कोई काम ही नहीं करता। और यदि इनके पास कुछ समय
होता भी है तो ये लोग उसमे अपनी महफ़िलें आरास्ता करने में जुट जाते हैं।
भँवरी देवी, निर्भया, इशरत जहाँ, इमराना-- ये इंसाफ़ की मुन्तज़िर हस्तियाँ
नारीवादी संस्थाओं के वजूद पर प्रश्नचिह्न लगाती हैं !! आज देखता हूँ कि
किस तरह कुछ छदम-नारीवादी उन सत्तलोलुपों के अंधभक्त बने बैठे है जिनके ताज
पर बेगुनाह औरतों के ख़ून के धब्बें साफ़ चमकते है। साथ ही, एक तलाक़शुदा
स्त्री के साथ जो हुआ उसका समाधान न तो चाटुकारिता में है, न बैगपाइपर में
है, न ही भौं कुतरने में और न ही चूड़ी-कंगन में!!
बात आती है हमारे
देश की राजनैतिक ढांचे की, जो सौभाग्य से लोकतान्त्रिक है ! संसद देश का
सर्वोच्च मन्दिर है। महिलाओं की दशा को लेकर संसद में विमर्श हों, पुरुष
सांसद इस अहम मुद्दे पर मंथन करें। किन्तु यहाँ तो हालात और भी भयावह हैं
!! पुरुषों की छोड़िए, यहाँ मौजूद महिलाएं भी पुरुषों की ज़ुबान बोलती हैं,
वो ज़ुबान जो पार्टी के हित में हो, जिससे 'सेवा' के नहीं अपितु 'शासन'
के भरपूर मौक़े भविष्य में मिलें। ऐसे में देश की बेटियाँ खाप के गंडासों
या खंजरों का चारा नहीं बनेंगी तो क्या होगा !! ऐसे में देश की बहुओं पर
मिट्टी के तेल की ज्वलनशीलता के परीक्षण नहीं होंगे तो फिर क्या होगा !!
चलते-चलते
धर्म की भी बात कर ली जाये। आज की दुनिया में "धर्म" वो शब्द है जिसकी
व्याख्या कार्ल मार्क्स से लेकर हाफ़िज़ सईद और गोलवलकर जैसो ने अपने-अपने
तरीक़े से की है। फलत: इस संसार को वो नहीं मिल पाया जिसकी इसको ज़रूरत थी।
महिलाओं के मामले में यहाँ सबसे भयंकर नज़ारे देखने को मिलते
है। मुसलमानों में देखा जाये तो एक कठमुल्ला सारी समस्याओं की जड़ बेटी को
ही बताता है, भिमुख इसके मुहम्मद साहब बेटी को 'रहमत' कहते हैं। धरम का
ठेकेदार कहेगा कि क़ुरआन के अनुसार औरत को पर्दा करना चाहिए किन्तु वो आपको
यह नहीं बताएगा कि उसी क़ुरआन (अध्याय 24) के मुताबिक़ मर्द को भी पर्दा करना
चाहिए!!
देश में महिला-शिक्षा का स्तर ज़रूर बढ़ा है किन्तु इस शिक्षा
ने उन्हें कितना स्वावलम्बी बनाया है --ये सवाल ज्यों का त्यों बना हुआ
है। आजकल मुस्लिम घरानों में लड़कियों को इसलिए पढ़ाया जा रहा है ताकि शादी
के पश्चात् वो किसी नौकरी पेशा युवक के 'स्टैण्डर्ड ऑफ़ लिविंग' को बनाए रख
सकें !! इस तरह तो औरत की तरक़्क़ी होने से रही ! यहाँ फिर वो अर्धांग्नी
नहीं बन पायेगी, फिर कोई पुरुष उसे बेदख़ल कर देगा, फिर वो अपनी दो-तीन
महीने की मासूम बच्ची को गोद में लेकर दर-दर भटकेगी, फिर मैथिलि की
यह उक्ति सार्थक हो जाएगी-'आँचल में दूध और आँखों में पानी' !!
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