याकूब मेमन को फाँसी हुई, आधार था “जनचेतना” !! दौर चाहे संप्रग का रहा
हो या अब राजग का, यह कथित जनचेतना विश्व के कथित विशालतम लोकतन्त्र के लिए
घातक सिद्ध हुई है. दरअसल, यह जनचेतना ‘जड़-चेतना’ है और यदि यही सिलसिला
आगे भी बदस्तूर चलता रहा तो हमारा लोकतन्त्र इस चेतना के चक्कर में ‘चेतन’
से ‘जड़’ में परिवर्तित हो जाएगा. इसमें कोई दो राय नहीं कि याकूब मेमन एक
गुनाहगार था और क़ानून द्वारा तय की गयी ‘वाजिब’ सज़ा का हक़दार भी. लेकिन
तर्क, तथ्यों और सुबूतों पर टिकने वाला वस्तुपरक ‘क़ानून’ कब अवैज्ञानिक, अतार्किक और व्यतिपरक ‘जनचेतना’ के सामने घुटने टेक गया, पता ही नहीं चला!
जिस
जनचेतना का हवाला दिया जा रहा है, वास्तव में वह जाहिलों का धरम-करम है.
इस जनचेतना का कोई भी सम्बन्ध वैज्ञानिक प्रवृति, बुद्धिमत्ता और तर्क से
नहीं है. यदि कोई यह सोचता है कि भारत की जनता ‘चेतन’ अर्थात समझदार, जीवित
और जागरूक है तो उसे चाहिए कि मामले को गहराई तक देखे. यह वह देश है जहाँ
नदियाँ विश्व के दूसरे देशों के मुकाबले सर्वाधिक सम्मानीय है, माँ सरिस.
लेकिन सच्चाई यह भी है कि सबसे ज़्यादा गन्दी नदियाँ इसी मुल्क में पायी
जाती हैं. यह वह मुल्क है जहाँ आधुनिक दौर में मज़हब और ‘एकेश्वरवाद’ का
दर्स देते हुए एक से बढ़कर एक मुल्ला अथवा वक्ता आपको मिल जाएगा लेकिन
मुसलमान का वजूद आपको फिरकों में ही नज़र आयेगा. बताया जाता है कि ख़ुदा एक
है. ख़ुदा तो एक रहता है लेकिन मुसलमान एक नहीं हो पाता. यह है देश की
जनचेतना जो अपने प्रियतम विषय अर्थात धर्म की यह समझ रखती है और जो
किर्यांवन से भी प्रकाश-वर्षों दूर है!!
मनोविज्ञान को पर्यावरण
निर्धारित करता है और हमारे देश में आजकल पर्यावरण को भ्रष्ट राजनीतिखोर
(जिन्हें नेता नहीं कहा जा सकता), मुख्यधारा मीडिया और सोशल मीडिया बनाते
हैं. आम भाषा में इसे “माहौल बनाना” कह सकते हैं. जब आपेक्षित ‘माहौल’ बन
कर तैयार हो जाता है तो जम्हूरियत में मौजूद जाहिलों की जमात ‘जनचेतना’ का
स्वरुप ले लेती है. नतीजा यह निकलता है कि इसी इकतीस प्रतिशत जनचेतना का
चुना हुआ ‘विकासपुरुष’ चौदह महीनों के बाद भी आपको अपनी ज़मीन पर नज़र ही
नहीं आता; ग़रीबी, रोज़गार, स्वास्थ्य जैसे मसले तो दोयम हैं! जनचेतना के
सौदागर यह जान ही नहीं पाते कि उनके लिए ठीक क्या है और ग़लत क्या! केवल
तमाशाइयों की तरह जुमलों और आश्वासनों पर कूदना आता है और अपनी अक्लों का
सौदा कर बैठते हैं.
मेमन एक मुसलमान था. और सोशल मीडिया द्वारा पोषित
इसी जनचेतना के कारण उसका मुसलमान होना घातक सिद्ध हुआ! मेमन के मामले में
दो तरह की जनचेतनाएँ सामने आयीं. एक तो वो जिसके तहत अदालत ने मौत की सज़ा
सुनाई और जिसपर यह आरोप लगा कि यह जनचेतना ‘मुस्लिम-विरोधी’ है. दूसरी वह
जो सोशल मीडिया पर ख़ुद को मुस्लिमोन्न्मुख अथवा मुस्लिम-हितेषी बताती रही.
लेकिन अफ़सोस कि इनमें से कोई भी “न्याय-प्रिय” नहीं थी. परिणाम यह हुआ कि
फ़ैसला तो हुआ लेकिन न्याय नहीं. फाँसी की घोषणा के बाद पहले मिनट से ही
सोशल मीडिया पर यह ‘माहौल’ बना दिया गया कि मेमन मुसलमान है और उसका
मुसलमान होना जान लेकर ही छोड़ेगा. ऐसा माहौल बनाने वाले वही लोग थे जो आज
मेमन के हितेषी होने का दंभ रखते हैं और हद तो यह कि उसको ‘शहीद’ क़रार देते
हैं! बहतर होता कि मेमन को सिर्फ अपराधी समझा जाता, मुसलमान नहीं.
इस
हिन्दू-मुस्लिम की बकवास के बीच जो नुक्ता छूट गया वो यह था कि संवाद और
विमर्श किया जाये कि आत्मसमर्पण करने वाले मेमन पर उसके भाई की सज़ा क्यूँ
थोपी जा रही है? और यदि थोपी भी जा रही है तो उस सज़ा का परिमाण इतना बड़ा और
परिणाम भयंकर क्यूँ है. अनुच्छेद 22 में केवल ‘हिरासत’ के मामलों में भी
अत्यधिक एहतियात बरतने वाला संविधान और एक ही जुर्म पर दोबारा सज़ा को मौलिक
अधिकारों का हनन क़रार देती व्यवस्था किस आत्मा और ऊर्जा के अधीन होकर काम
कर रही थी—इस पर जो विमर्श होना चाहिए था वो इस जनचेतना के प्रभाव में दब
कर रह गया और आनन-फ़ानन में याकूब को मार डाला गया. फाँसी का फन्दा पहली
जनचेतना ने बनाया और अतिद्रुत गति से हत्था खीचने का काम दूसरी जनचेतना ने
किया !
अब सवाल उठता है कि इस दौरान देश के बुद्धिजीवी और अहले-ख़िरद
लोग क्या कर रहे थे? दरअसल, बैचेन तो वे बहुत थे और अपने स्तर पर कुछ न कुछ
ज़रूर कर रहे थे. कुछेक ने राष्ट्रपति को पत्र भी लिखे, कुछ ने अख़बारों,
वेब-पोर्टलों और सोशल-मीडिया पर लेख लिखे, नाराज़गी और क्रोध ज़ाहिर किया
लेकिन यह सब कदाचित ‘बराए नुमाइश’ ही साबित हुआ. बहतर होता कि ये अक्ल वाले
लोग मुल्क की सड़कों पर तशरीफ़ लाते और सड़कों की धूल को क़दमबोसी का मौक़ा
देते ताकि वो धूल मुल्क के मुक़द्दस आईन और उसके उसूलों से दूर रहती. ताकि
ये जनचेतनाएँ फिर कभी सर उठाने का साहस न करतीं !! मगर अफ़सोस सोशल मीडिया
ने आप को ‘सोशल’ न होने दिया !! दानिश्वरों और बुद्धिजीवियों को फ़िक्र की
आज़ादी का उतना ही हक है जितना दूसरों को. क्यूँकी आपकी तादाद समाज में बहुत
कम है इसलिए आपकी आवाज़ कागजों तक सीमित रही तो इन घातक जनचेतनाओं द्वारा
आसानी से दबा दी जाएगी. फिर वो आपसे ज़्यादा आज़ाद होंगे. बुद्धिजीवी का मकसद
सिर्फ़ सोचना या लिखना नहीं होना चाहिए. यदि ऐसा है तो ऐसी सोच में विकार
है. और बक़ौल अल्लामा इक़बाल आपका यह रवैया समाज को हैवान बनाने में मदद करता
है:
हो फ़िक्र अगर ख़ाम तो आज़ादी-ए-अफ़कारइन्सान को हैवान बनाने का तरीक़ा !!
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