मनुष्य उन्मुक्त है; प्रकाश की तरह ! इतिहास साक्षी
है, जब भी मनुष्य से उसकी स्वायत्ता अथवा उन्मुक्तता के हरण हेतु प्रयास
किये गए हैं, एक विशाल विद्रोह ने ब्रह्माण्ड को स्तब्ध किया है जिसका
प्रतिफल हमारे समक्ष अशफाक उल्ला खान, भगत सिंह सरीखी शक्लों में आता रहा
है. विद्रोह अथवा क्रांति की महत्ता पर बल देते हुए शायर- ए-मशरिक़ अल्लामा
इक़बाल कहते हैं:
तेरी ख़ुदी में अगर इंक़लाब हो पैदा, अजब नहीं के (कि) ये चार सू बदल जाये.
मनुष्य
अपनी उन्मुक्त भावनाओं कि अभिव्यक्ति विभिन्न ललित तथा शिल्प कलाओं से
करता है; भारतीय शास्त्रीय संगीत भी उन्ही में से एक है. कई बार सोचा- क्या
शास्त्रीय संगीत की पद्धति, जो स्वयं उन्मुक्त भावनाओं की अभिव्यक्ति है,
किसी के लिए बन्धनों का पर्याय बन सकती है? यदि हाँ, तो इसका विद्रोह करने
का साहस कौन कर सकता है? उत्तर मिला- ऑस्ट्रिया के मोज़ार्ट से मद्रास के
मोज़ार्ट तक ऐसा कोई संगीतकार नहीं जो संगीत पद्धति के बंधनों से परे सोच
पाए; सिवाए 'कुमार गन्धर्व' के.

स्वर्गीय कुमार
गन्धर्व का मत है कि जो किसी एक घराने की घिसी पिटी परम्परा को सीखे और
उसके बन्धनों से बाहर जाकर कुछ नया सृजन न कर सके तो वह कलाकार नहीं नकलची
है. परम्पराएँ जड़ता प्रदान करती हैं- उसको जो उन्मुक्त न हो किन्तु एक
प्रयोगधर्मी कलाकार हेतु यही परम्पराएँ एक इंक़लाब का सबब बनती हैं. कुमार
अभूतपूर्व प्रयोगधर्मी प्रतिभा के इकलौते अलम्बरदार थे. उनका पहला रिकार्ड
यानि संगीत एल्बम नौ वर्ष की अल्पायु में संगीत क्षितिज पर आया. कुमार का
संगीतमय विवेक इश्वर प्रदत्त था. बिना किसी संगीत शिक्षा के वह सात साल की
कमसिनी में बड़े-बड़े दिग्गजों को सिर्फ एक बार सुनकर हु-ब-हु उनकी तरह
गाने का माद्दा रखते थे. कोई आरोह, अवरोह और मुरकी उनसे न छूटती थी. बाद
में विभिन्न गुरुओं ने बालक कुमार को पहचाना और उसमे निहित संगीतपुन्ज की
रश्मियों को संसारभर में फैलाया. उनके गुरुओं की एक विस्तृत सूची है जो
कदाचित यह बताती है कि वह घराना परंपरा के कायल नहीं थे. तबलावादक उस्ताद
महबूब अली खां, 'कुमार बाबा' कहकर पुकारने वाली बेग़म अख्तर, पंडित देवधर,
उस्ताद वाजिद हुसैन तथा उस्ताद सिंदे खां उनको अत्यंत प्रिये थे.
कुमार
गन्धर्व हर तरह के संगीत का सम्मान करते थे. शास्त्रीय संगीत, सूफ़ी
संगीत, लोक संगीत इत्यादि को वह एक ही वृक्ष की शाखाएं कहते थे; वे
शाखाएं, जो सूर्य रुपी एक ही इश्वर से तेज पाती हैं तथा उसी परम सत्य को
पाने के लिए वायुमंडल में चारों ओर वृद्धि करती हैं. वह आधुनिक फ़िल्मी
संगीत के कड़े आलोचक थे क्यूंकि फ़िल्मी संगीत में आत्मीयता का अभाव है.
इसमें धन का मोह तथा इश्वर को छोड़कर सांसारिक माया एवं ऐश्वर्ये का
अन्धानुकरण है. यहाँ तक कि वह देश के बाहर जाकर अपनी प्रस्तुति देना भी
पसंद नहीं करते थे, इस भय से कि कहीं लोग उन्हें धन का लोभी न समझ बैठें.
वह कहते थे कि जिसे संगीत सुनना है, वह हिन्दोस्तान आये और सुने!
कुमार
के प्रयोगधर्मी तथा इन्क़लाबी विवेक का बोध उनके द्वारा सृजित किये गए
अनेक रागों से हो जाता है जैसे- राग नन्द केदार, राग सोहनी भटियार, राग मधु
सुरजा, राग अतिमोहिनी, राग भवमत भैरवी, राग लंके श्री इत्यादि. कुमार के
लिए तमाम भारतीयों के स्नेह को प्रस्तुत करते हुए भारत सरकार ने उन्हें
१९९० में पदम् विभूषण से सम्मानित किया. यद्यपि यह सम्मान हमारे लोकतंत्र
में 'सम्मान की पराकाष्ठ' है, तथापि मुझे कुमार के लिए यह छोटा नज़र आता है.
ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ क्यूंकि जब महान संगीतकार उस्ताद फ़य्याज़ अली
खां ने पहली बार ग्यारह साल के कुमार गन्धर्व को सुना तो वह स्वत: ही कह
उठे- 'बेटा! अगर फ़य्याज़ खां जागीरदार होता तो आज सारी जागीर तुझ पर लुटा
देता'. इतने महान थे कुमार गन्धर्व! सम्मान प्राप्ति के दो वर्ष पश्चात् ही
१२ जनवरी १९९२ को संगीत के इस 'क्रांतिकारी' ने हृदयाघात के कारण इस
जहान-ए-फ़ानी को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया.
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