एक घनिष्ठ मित्र ने बताया कि हास्य कलाकार राजू श्रीवास्तव आगामी
लोकसभा के लिए चुनावी समर में क़दम रख रहे है। उत्तर प्रदेश की एक राजनैतिक
पार्टी ने उन्हें कानपुर से अपना प्रत्याशी सुनिश्चित किया है। करोड़ो
भारतीयों की तरह मैं भी राजू की मसखरी और हुनर का कायल हूँ और उनकी कला की
हमेशा से कद्र करता रहा हूँ। लेकिन अब प्रश्न यह उठता है कि एक व्यक्ति के
लिए देश के पेचीदा मसअलों को संभालना और लोगों को हसाना, सामंजस्य और संगत
के कितना अनुरूप है ? उत्तराखंड में आई विभीषिका से निपटने और राखी सावंत
के साथ ठहाके लगाने में बहुत बड़ा फर्क है! आये दिन समाज में असमतदरी,
हत्या और फौजदारी के मामले प्रशासन के समक्ष आते हैं। ऐसे में यदि प्रशासन
और प्रजातंत्र की बागडोर संभालने वाले किसी नौटंकीशाला से चुने जायेंगे तो
प्रशासन की दक्षता और नेतृत्व का क्या हश्र होगा, यह बताना मुश्किल है!!
देश
को चलाना आसान काम नहीं है, और वह भी विशेषकर भारत में जहाँ प्रशिक्षित,
दक्ष और मेहनतकश प्रशासनिक अधिकारियों के ऊपर मनमौजी नेता अपनी मनमानी करते
हैं; ऐसे नेता जो कभी प्रजातंत्र के मंदिरों में अश्लील चलचित्र देखते
हैं तो कभी कारगिल के शहीदों की विधवाओं के रिहाईशी फ्लेट हथियाकर नेतृत्व
के नये 'आदर्श' स्थापित करते हैं! कभी देश का कोयला निगलकर देश को
'ऊर्जाविहीन' कर देते हैं, कभी विस्तृत 'भारतीय रेल' को अपने बाप-दादा की
जागीर समझ कर उसका सौदा कर बैठते हैं और कभी ग़रीब बच्चों को भूख से बिलखते
देखने के बावजूद भी देश का अनाज बाहर बेच देते हैं या गोदाम में रखकर
'लम्बोदर की सवारी' को भेंट कर देते हैं! सन 2025 तक 'मोस्ट पॉपुलस नेशन'
का ताज पहनने के लिए तैयार खड़े भारत में एक तरफ तो नेतृत्व के लाले पड़े
हुए हैं, वहीँ दूसरी तरफ देश का नेतृत्व नौटंकीशालाओं, बॉलीवुड और
गली-नुक्कड़ के तमाशो का मोहताज बन बैठा है।
नेतृत्व
अपने निम्नतम स्तर तक जा पहुंचा है। नेताओं को 'सेवा' नहीं अपितु 'मेवा'
दिखाई देती है। एनडीए और यूपीए स्वयं को एक दूसरे से पाक-साफ़ बताते हैं।
विशेषकर, पिछले ९ साल में यूपीए के कारनामों के ज़रिये भाजपा सरीखे दल
राजनैतिक लाभ उठाने की जुगत में लगे रहते हैं। जबकि हकीकत यह है कि
'पारदर्शिता' और 'आरटीआई' के इस दौर में जिस तरह यूपीए की हकीकत सामने आई
है, उसी तरह बाबरी विध्वंस, सिख नरसंहार और गोधरा काण्ड जैसी "अमर गाथाओं"
का सच और इनमे लिप्त "शूरवीरो" के मुखौटे भी सामने आ जाते!!
लोकतंत्रीय
प्रणाली का सबसे अधिक मजाक दुनिया के इसी सबसे बड़े लोकतंत्र में बना है।
राजनैतिक दल देश की जनता को "समेकित शिक्षा" से दूर रखते हैं। ये केवल
"साक्षरता" देते हैं "शिक्षा" नहीं! वैचारिक लकवे और विचाराघात से ग्रस्त
देश की मासूम और अशिक्षित जनता अभिनेत्रियों की अदाओं, अभिनेताओं के
डायलाग, कवियों के ख्याली पुलाओ और मसखरों की अदार्शनिक बातों में फंसकर रह
जाती है और भरी सभाओं में उनके अतिश्योक्ति से भरे भाषण सुनकर उनको अपना
"नेता" मुन्तखब करने का फैसला कर लेती है। लोकतंत्र में "नेता" का वही
रुतबा और अहमियत होती है जो परिवार में दादा और यान में पायलट की होती है।
शिक्षा की कमी के कारण देश के युवा अपना भला-बुरा सोचने में असमर्थ हैं।
यही वजह है कि चीन के पश्चात भारत में सर्वाधिक मानव संसाधन होने के बावजूद
हम वाशिंगटन और लन्दन से सदियों पीछे हैं।
ये
अभिनेता, अभिनेत्रियाँ और हास्य कलाकार उस वक्त और भी ज्यादा घातक सिद्ध
होते हैं जब ये 'चुनावों' के जरिये 'लोकसभा' में सेंध लगाते हैं और हमारे
हक में होने वाले अहम फैसलों पर संसद में "वोट" करने का हक पा जाते हैं।
ऐसा नहीं है कि हमारा संविधान कलाकारों की कद्र नहीं करता ; बल्कि हमारे
यहाँ तो निहित है कि कोई भी कलाकार, वैज्ञानिक और यहाँ तक कि समाज-सेवी भी
संसद के गलियारों तक जा सकता है। उसके लिए संसद में 'नामित' सीटों का
प्रावधान हमारे संविधान में है। और इन नामित सांसदों की खासबात यह होती है
कि जनता के हक में होने वाले महत्वपूर्ण फैसलों पर वोट देने का
हक इनको संविधान ने नहीं दिया है। स्पष्ट है कि हमारा संविधान देशचर्या और
उसके दायित्वों को भलीभांति समझता है। संविधान में स्पष्ट है कि "नेतृत्व"
और "नौटंकी" में फर्क होता है!!
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