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समतावादी समाज को बढ़ावा देने में संचार माध्यमों की भूमिका

समतावादी समाज की परिभाषा 

भारत को स्वतंत्र हुए छ: दशक से भी अधिक हो गए हैं. 26 जनवरी, 1950 को देश का संविधान लागू हुआ- वह संविधान जिसकी भूमिका में 'समता', 'समानता' सरीखे शब्दों को विशेष रूप से अंकित किया गया है, किन्तु चंद्रमा पर पहुँचने के पश्चात् भी भारतीय जनमानस 'समता' शब्द को परिभाषित करने में अक्षम रहा है. राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने समता के सिद्धांत को कुछ इस तरह प्रस्तुत किया है- 'मैं एक ऐसे भारत का स्वप्न देखता हूँ जिसमे देश का निर्धनतम नागरिक यह अनुभव करे कि यह देश उसका है तथा वह अपनी अभिव्यक्ति हेतु एक प्रभावी स्वर रखता हो,... जिस (देश) में सारे संप्रदाय पूर्ण सामंजस्य के साथ रहते हों, जिसमे किसी भी प्रकार के भेदभाव, छुआ-छूत, मादक पदार्थों का सेवन आदि का कोई स्थान न हो, महिलाएं पुरुषों के समकक्ष अधिकार पावें (एम के. गाँधी, इंडिया ऑफ़ माय ड्रीम्स, पृष्ठ 9 - 10 )'. डॉ. राम मनोहर लोहिया के शब्दों में समता और अधिक सटीक जान पड़ती है. 21 दिसम्बर 1963 को उन्होंने लोकसभा में कहा था- जिसप्रकार वायुमंडल में उपस्थित वायु बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक व्यक्ति की देह को स्पर्श करती है तथा श्वासोच्छवास द्वारा उसकी प्रत्येक कोशा को पोषित करती है, उसी प्रकार भारत सरकार को संविधान की समतावादी आत्मा के निर्वाह हेतु प्रयत्नशील रहना चाहिए.

यदि मीडिया अथवा संचार माध्यमों के तात्पर्य से लोहिया के उपरोक्त कथन पर ध्यान केन्द्रित किया जाये तो उनका यह कथन भारत सरकार नहीं अपितु संचार माध्यमों के लिए भी क्रियान्वन का आधार होना चाहिए. किसी भी संस्था अथवा संगठन की कार्यशैली उसके वातावरण पर निर्भर करती है. प्राय देखा जाता है कि आज भारतीय मीडिया को तरह-तरह की आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है. इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण नब्बे के दशक में आई उदारीकरण की बयार है जिसने भारत में पूंजीवाद को बढ़ावा दिया, उद्योगपतियों का बोलबाला हुआ और असमानताओं का एक दौर सा आरम्भ हो गया जो आज तक चल रहा है. सुख्यात अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक लिखती हैं- '1998-2003 के दौरान भारत का प्रतिव्यक्ति खाद्य अवशोषण 40 के दशक के बराबर था किन्तु मीडिया और सरकार ने सब कुछ 'फ़ील गुड' कराया. विशेषकर मीडिया ने यह कष्ट उठाने का साहस भी नहीं किया कि वह देश कि जनता को सचेत करदे कि किस तरह ग़रीबी रेखा के प्रावधानों से छेड़छाड़ करके लाखों टन अनाज देश के बाहर भेज दिया गया और देश को भूखा छोड़ दिया गया (उत्सा पटनायक, रिपब्लिक ऑफ़ हंगर, 2004)

स्वतंत्रता संग्राम में मीडिया की भूमिका 

समतावादी समाज को प्रबलता प्रदान करने के लिए देश के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक ताने-बाने को सुदृढ़ करना परमावश्यक है. 1857 की पहली क्रांति ने देश भर में अपना व्यापक प्रभाव बनाया परन्तु यह क्रांति एक विशाल अखिल भारतीय आन्दोलन का रूप नहीं ले सकी. आज़ादी की चिंगारी देश के विभिन्न भागों में पृथक रूप से पनपती रही लेकिन अच्छे संचार माध्यमों के अभाव में ये चिंगारियां विशाल ज्वाला के रूप में परिवर्तित नहीं हो सकीं. तत्पश्चात अल-हिलाल, पंजाब केसरी जैसे समाचार पत्रों ने स्वतंत्रता सेनानियों को एक सूत्र में बांधा जिसके फलस्वरूप 1947 में भारत को स्वराज की प्राप्ति हुई. स्वतंत्रता संग्राम में मीडिया की भूमिका को नगण्य मानना एक बड़ी भूल होगी. इसी को ध्यान में रखते हुए हमारे संविधान निर्माताओं ने मीडिया की संवैधानिक स्वंतन्त्रता को विशेष ध्यान दिया. मीडिया की स्वतंत्रता का उद्गम संविधान का अनुच्छेद 19 (1) (अ) है, किन्तु स्वतंत्र भारत का मीडिया इस विवेकाधिकार को किस प्रकार को समझ पाया है-एक विचारणीय तथ्य है!

सामाजिक समता में मीडिया की भूमिका

यदि भारत और उसकी सामाजिक व्यवस्था के प्रशंसकों की बात की जाये तो उसमें मैक्स म्युलर का नाम शीर्ष पर रहेगा. अपनी पत्नी को प्रेषित एक पत्र में वह कहते हैं- ' भारतीय समाज ज्ञान विज्ञान के भंडारों (वेदों) का इकलौता वारिस है, ये वेद भारत में समतावादी समाज की आधारशिला रखने में विशाल भूमिका निभाते हैं और निभाते रहेंगे (जार्जीना म्युलर, लेटर्स एंड लाइफ ऑफ़ आनरेबल फ्रेडरिक मैक्स म्युलर, भाग-  2). म्युलर ने सोचा भी नहीं होगा कि किस तरह उनकी भविष्यवाणी सच नहीं हो पाएगी . आज बढती साम्प्रदायिकता, जात-पात तथा दलित-ब्रह्मणवाद प्रगतिवादी स्वतंत्र भारत में चिंता का विषय हैं और काफी हद तक इसमें मीडिया का हाथ है. अक्टूबर-नवम्बर 1990 के दौरान समाचार पत्रों ने खबरों के ज़रिये सांप्रदायिक वातावरण बनाने में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया तो प्रेस परिषद् ने एक जाँच समिति बनाई. प्रेस आयोग (प्रथम व्  द्वितीय) ने भी मीडिया की सांप्रदायिक भूमिका को लेकर टिप्पणी की थी. जब साम्प्रदायिकता का पानी सर के ऊपर से गुजरने लगता है तो ऐसी जांच समितियां गठित की जाती रही हैं. लेकिन जिस तरह मीडिया का विस्तार हुआ है और मीडिया संस्थानों के अपने हितों को लेकर पूर्वग्रह बढे हैं, वैसी स्थिति में क्या जांच और अध्ययन की प्रक्रिया को जारी रखना चाहिए? आखिर प्रेस परिषद् या किसी भी संस्था ने ये जांच करने की ज़रूरत क्यूँ नहीं समझी कि मंडल आयोग (विश्वनाथ प्रताप सिंह से लेकर अर्जुन सिंह के आरक्षण के फैसले) के दौरान मीडिया की जातिवादी भूमिका क्यों रही?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व में उन्मादी भीड़ द्वारा बाबरी विध्वंस के बाद हुई बम विस्फोटों की घटनाओं में मुसलमानों का हाथ होने की खबरें खूब प्रस्तुत की जाती रहीं. अमेरिका में 9 /11 के बाद तो जैसे भारत में विस्फोट की घटनाओं में मुस्लिमों को आरोपित करने की भूमंडलीय स्वीकृति सी मिल गयी थी. राष्ट्रीय दैनिक 'जनसत्ता' के अनुसार न केवल विस्फोटों में मुसलमानों के बजाय हिन्दुत्ववादी आतंकवादियों के शामिल होने की जानकारी सामने आई है, बल्कि कई विस्फोटों में पुलिस और आतंकवाद निरोधी दस्ते ने जिन्हें पकड़ा था, अदालतों ने उनको बरी कर दिया किन्तु मीडिया ने आवाज़ उठाने साहस तक भी न किया. आधुनिक भारत में मीडिया का यह दोगला व्यवहार प्रजातंत्र के लिए हानिकारक है.

ऐसा नहीं है कि मीडिया ने कभी समता और धर्मनिरपेक्षता की बात न की हो. जब साठ के दशक में हिन्दू कट्टरपंथियों ने 'हिंदुत्व' की परिभाषा को केवल कृपाण और त्रिशूल तक सीमित कर दिया था तब 8 दिसम्बर 1968 को  सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन 'अज्ञय' ने बतौर संपादक अपने अख़बार में लिखा था-'संघ का ऐब यह नही है कि वह हिन्दू है, ऐब यह है कि वह हिंदुत्व को संकीर्ण और द्वेषमूलक रूप देकर उसका अहित करता है, उसके हजारों वर्ष के अर्जन को स्खलित करता है, सार्वभौम तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर  देशज या प्रदेशज  रूप देना चाहता है यानि झूठा कर देना चाहता है'.  इस तरह यह स्पष्ट है कि यह मीडिया कि मंशा पर निर्भर करता है वह निर्व्यलीक भाव से समाज को किस ओर अग्रसर करना चाहता है.

आर्थिक तथा राजनैतिक समता में मीडिया की भूमिका

भारत में आर्थिक असमानता का मुख्य कारण यहाँ की ग़रीबी है. घोर निर्धनता रुपी 'दाद' में मीडिया का ग़ैर ज़िम्मेदार व्यवहार 'खाज' का काम करता है. जस्टिस काटजू के अनुसार -'मीडिया फ़िज़ूल मुद्दों को अधिक उछालता है और मुख्य मुद्दों को नज़रंदाज़ करता है ( द हिन्दू, 22 अक्टूबर 2011)', ग़ौरतलब  है कि लक्मे फैशन वीक में 512 रजिस्टर्ड पत्रकारों ने कार्यक्रम में उपस्तिथि दर्ज कराई. यह समारोह सूती वस्त्रो की व्यवसायिक नुमाइश के लिए आयोजित किया गया था जिसमे मीडिया ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया. एक छोटे से कार्यक्रम में पत्रकारों का इतना बढ़ा झुण्ड, समझ से परे है. होना यह चाहिए था कि ये पत्रकार सूती वस्त्रों की नुमाइश में न जाकर विदर्भ जाते और उन किसानों का हाल पूछते जिन्होंने उन सूती वस्त्रों के लिए कपास पैदा की और आज वो धन और अनाज के अभाव में भुखमरी से दम तोड़ रहे है. जिनके बच्चों के लिए दो वक़्त की रोटी उपलब्ध नहीं है,  स्कूल अथवा किताब के बारे में सोचना तो दूर की बात है.

अक्सर देखा जाता है मीडिया फ़िल्मी हस्तियों की व्यक्तिगत मामलों को बहुत उजागर करती है, उदाहरण के लिए कुछ माह पूर्व यह खबर आई कि अमुक फिल्म अभिनेता की पत्नी   गर्भवती है, अब देखना यह है कि बच्चा लड़का होगा या लड़की? ऐसे प्रश्नों से देश की समृद्धि का कोई सम्बन्ध नहीं है. सौभाग्य से उसी समय जनगणना के परिणाम भी हमारे सामने आये जिसमे घटते लिंगानुपात ने भारतीय जनमानस को झकझोर कर रख दिया है, लेकिन मीडिया के कान पर एक जूँ तक नहीं रेंगी. मीडिया को चाहिए था कि लिंगानुपात वृद्धि के नए नए उपायों तथा सरकारी योजनाओं को जनता तक पहुंचाए, न कि अभिनेत्री के गर्भवती होने की खबर!

वास्तव में यह सब मीडिया कंपनियों द्वारा अधिक धनोपार्जन की भूख के चलते होता है और आर्थिक असामनता का कारण बनता है. जनवरी 2010 में सुप्रीम कोर्ट के एक जज ने कहा था कि महिलाओं की  एक बड़ी संख्या देह व्यापार के धंधे में है तो हमें इसे कानूनी दर्जा दे देना चाहिए, ताकि यौन उद्योग को विनियमित किया जा सके (जनसत्ता, 5 नवम्बर, 2010) ऐसे समाचारों को प्रकाशित करने के दौरान मीडिया ने इस पेशे के अंतहीन दलदल में धकेल दी गयीं छोटी बच्चियों की दुर्दशा पर चिंतन करना आवश्यक नहीं समझा. बड़ी आसानी से वेश्यावृत्ति में निवेश की बात कही जाती है, शायद इसलिए कि इसमें आमतौर पर आर्थिक रूप से ग़रीब और निचली कही जाने वाली जातियों कि औरतें होती हैं. पिछले वर्ष राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान हजारों युवा महिलाओं को दिल्ली में विदेशी पुरुषों कि यौन पिपासा मिटने के लिए तस्करी करके भेजा गया था. इन महिलाओं को यौन हिंसा से बचने के लिए तो कुछ नहीं किया गया, लेकिन उनके खरीदारों कि मदद के लिए शीला सरकार ने शहर भर में कंडोम वितरित करने वाली सैकड़ो मशीनें लगवा दीं और हमारा ज़िम्मेदार मीडिया मूक बधिरों कि तरह सब कुछ देखता रहा. 2.5 लाख ग़रीबों को विकास के नाम पर दिल्ली के फुटपाथों से निष्कासित किया गया, और मीडिया खामोश रहा.

यदि जूलियन असान्ज के नेतृत्व में पश्चिम का मीडिया अपने घर के गड़बड़झाले को साफ़ करने के लिए ज़ोखिम उठाने के लिए तैयार है तो भारत कि पत्रकारिता को भी पीछे नहीं हटना चाहिए, और साहस से काम लेना चाहिए. वास्तव में, साहस अपने विरोधी की कमी उजागर करने में नहीं, अपितु अपनी व्यवस्था की कमी उजागर करने में है, जो एक बार अज्ञय ने दर्शायी थी तो अब जूलियन असान्ज ने.

निष्कर्ष

महात्मा गाँधी का पूर्ण स्वराज समतावादी भारत में वास करता है किन्तु ये समतावादी समाज आज भी स्वतंत्र भारत से कोसों दूर है. समानता, धर्मनिरपेक्षता तथा सहिष्णुता - ये ऐसे तत्व हैं जो किसी व्यक्ति में उस परमतत्व की मौजूदगी का अनुभव करते हैं और जिसे हम ईश्वर कहते है. वर्तमान में मनुष्य ईश्वर से दूर और भौतिकवाद और अनीति के निकट होता जा रहा है और यही मीडिया के पथभ्रष्ट होने का भी कारण है. मीडिया देश में समतावादी समाज को बढ़ावा तब दे सकता है जब वो गाँधी जी के मंतर का अनुसरण करे, देश के निर्धनतम नागरिक के बारे में सोचे, संस्कृतिक धरोहर के बारे में सोचे, धनतृष्णा को त्यागे और स्पष्टता का साथ दे.

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