कार्ल मार्क्स ने एक बार कहा था, 'दार्शनिक लोग समाज की
भिन्न-भिन्न रूप से विवेचना करते हैं किन्तु महत्वपूर्ण यह है कि समाज को
बदला कैसे जाये!' विवेचना का काम यदि विद्वान और दार्शनिक करें तो
बौद्धिक मंथन से कुछ ऐसे तत्व प्राप्त होते हैं जिनसे समाज को नयी दिशा
मिलती है, उसमे परिवर्तन आता है। किन्तु यदि यह काम अल्पज्ञ और अनुभवहीन
लोगों को दे दिया जाए तो यह बन्दर को दियासलाई जलाने की विधि सिखाने के
बराबर है। यानि समाज में आग लगाने के बराबर।
मिस्र जाने से पहले
विदेशमंत्री सुषमा स्वराज एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को सम्बोधित कर रहीं थीं।
कॉन्फ्रेंस का सम्बन्ध भारत-पाक सुरक्षा सलाहकार स्तर की वार्ता से था जो
अगले दिन ही कटुनीति का शिकार हुई। एक महिला पत्रकार ने स्वराज से पूछा कि
एक ओर पाक और भारत दोनों ही दावे कर रहे हैं कि वे वार्ता के प्रति कटिबद्ध
हैं लेकिन दूसरी तरफ दोनों एक दूसरे पर आरोप भी लगा रहे हैं कि द्वितीय
पक्ष निबन्धन (प्री-कंडीशन्स) रख रहा है। इस तरह भारत-पाक दोनों ही वार्ता
को विफलता की ओर ले जा रहे हैं, अंतर केवल इतना है कि हम यह वाक्यांश
(फ़्रेज़) इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं कि "वार्ता नहीं होगी"! यह सुनकर सुषमा
स्वराज ने नाराज़गी जताते हुए कहा कि "फ़्रेज़ आप लोग (मीडियाकर्मी ) यूज़ कर
लो न, आप लोगों के लिए है फ़्रेज़ यूज़ करना; .... लिखने का काम आपका है बोलने
का मेरा !!" सुषमा स्वराज का यह जुमला प्रच्छन्न एवम अव्यक्त रूप से उस
तस्वीर को हमारे सामने लाता है जो हम सब के दिमाग़ों में रहती है - मीडिया
के बड़बोलेपन और दायित्वहीन रवैये की तस्वीर ! अर्थात यह कि मीडिया "कुछ भी"
बोल, लिख और छाप सकता है !
अभी जनगणना
के धर्माधारित आँकड़े सामने आए तो देश के मीडिया ने एक सुर में सिर्फ़ एक ही
बात कही कि मुसलमान बढ़ रहें हैं और इस बात को इस तरह पेश किया गया मानो
बहुसंख्यक डायनासोर की भाँति जल्द ही विलुप्त हो जाएँगे। मीडिया की
सुर्ख़ियों में आपको यह नज़र नहीं आएगा कि मुसलमानों में जागरुकता बढ़ी है,
लिंगानुपात सुधरा है, परिवार नियोजन के अच्छे संकेत मिले हैं और
जनसँख्या वृद्धि की दर कम हो रही है। जनसँख्या के आँकड़ो की "विवेचना" करना
हर रस्ते चलते का काम नहीं है, जनसांख्यिकी का अपना एक अति-विकसित विज्ञान
है, इसीलिए विवेचना विशेषज्ञों का क्षेत्र है, अल्पज्ञों का नहीं। लेकिन
टीआरपी और दौलत का भूखा मीडिया इस बात को कहाँ समझता, उसे तो माल बेचने से
मतलब !
पिछले दिनों मीडिया की एक
और महानता सामने आई। जामिआ मिलिया इस्लामिया में गर्ल्स हॉस्टल में
विश्विद्यालय प्रशासन द्वारा एक नोटिस चस्पा किया गया जिसमें छात्राओं को
सांय आठ बजे तक अपने हॉस्टल में वापसी के संकेत दिए गए थे। जब मीडिया-महान
को इस नोटिस का पता लगा तो आव देखा न ताव, प्रशासन को "सेक्सिस्ट" घोषित कर
दिया गया ! न्यायालय से पहले मीडिया अपना फ़ैसला सुना देता है! बहुत महान
है देश का मीडिया- "मीडिया-महान"! ऑक्सफ़ोर्ड शब्दकोष के अनुसार "सेक्सिस्ट"
वह व्यक्ति होता है जो दूसरे व्यक्ति, विशेषकर महिला, से उसके भिन्न लिंग
के कारण बुरी तरह पेश आए या उसको आक्रामक बोल बोले। यह "सेक्सिस्ट" वाली
ख़बर देश में ख़ूब छायी रही और उसके बाद पता चला कि इस तरह के प्रशासनिक
मापदण्ड, जो बक़ौल मीडिया सेक्सिस्ट हैं, देश के अन्य कॉलेजों में भी हैं।
अर्थात जामिआ विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, अलीगढ़ विश्विद्यालय,
काशी विश्विद्यालय - ये सब सेक्सिस्ट हैं !
वास्तव
में, मीडिया-महान जल्दबाज़ी में यह तय करना भूल गया कि असली "सेक्सिस्ट"
कौन है: विश्विद्यालय प्रशासन या वह समाज जिसकी तस्वीर उनके अपने ही चैनलों
और अख़बारों में रोज़ नज़र आती है और उन तस्वीरों के मुसव्विर मीडिया वाले
ख़ुद ही होते हैं ! उन्हीं दिनों मीडिया ने समाज की एक ऐसी ही तस्वीर छापी
थी। तस्वीर यह थी कि दिल्ली देश का "रेप-कैपिटल" बन गया है। राष्ट्रीय
अपराध ब्यूरो की रपट के अनुसार विशिष्ट (ऐब्सालूट) तथा समानुपातिक स्तरों
पर दिल्ली में सबसे अधिक बलात्कार की घटनाएँ सामने आयीं। दिल्ली में देश की
1.5 प्रतिशत महिलाएँ रहती हैं और देश में होने वाले अपराधों का 4.1
प्रतिशत उनके हिस्से में आता है। निर्भया मामले के बाद दिल्ली के
"अति-विकसित" जनपद नई दिल्ली में बलात्कार की घटनाओं में 289 प्रतिशत का
इज़ाफ़ा हुआ है। दिल्ली के कुल नौ ज़िलों को मिलाकर बलात्कार की घटनाओं
में औसतन 125.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। महिलाओं के प्रति [दर्ज हुए]
अपराधों की संख्या 5,959 (2012) से बढ़कर 12,888 (2013) हुई है। इन आंकड़ो को
पेश करते हुए मीडिया ने बताया कि यह अच्छी खबर है कि अपराध पंजीकरण में
बढोत्तरी हुई है अर्थात महिलाएं अब शर्माना छोड़ रहीं हैं ! खुलकर अपनी
व्यथा सुना रहीं हैं। ताज्जुब है कि यह नहीं बताया गया कि जितने अपराध दर्ज
हुए, उसमे कितने मुजरिमों को सज़ा मिली, कितने मामलों को मीडिया ने अपने
स्तर पर फॉलो किया, कितनी महिलाओं को राहत मिली और क्या-क्या उपाय और सरकार
से मुतालबा किया गया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि महिलाएं ये दंश
दुबारा न झेलेंगी और कब उनके "अच्छे दिन" आएंगे ! दुखड़े सुनाने से दुखड़ों
का हल नहीं निकलता। लोकतंत्र का उद्देश्य केवल जुर्म को दर्ज करना नहीं
बल्कि जुर्म को मिटाना होना चाहिए।
पिछले महीने जब जामिआ का मामला
सुर्ख़ियों में था, उसी वक़्त कर्नाटक से जुड़ी एवम महिलाओं से सरोकार रखने
वाली एक ख़बर को मीडिया ने उसी जोश-ख़रोश के साथ दिखाना ज़रूरी नहीं समझा जिस
तरह जामिआ के नोटिस को उछाला गया। ग़ैर-सरकारी संस्था के.जे.सी. ने खुलासा
किया कि कलबुर्गी इलाक़े में निजी अस्पतालों में महिलाओं को बहला फुसला कर
या बड़ी बीमारी का भय दिखाकर उनकी ह्यस्टेरेक्टॉमी (अर्थात बच्चेदानी को काट
कर निकाल देना) की जा रही है। एन.जी.ओ. का कहना है कि यह कारोबार मान्यता
प्राप्त सरकारी स्वास्थ्यकर्मियों और निजी अस्पतालों की सांठ-गांठ से चल
रहा है। पीड़ित महिलाओं में 52 प्रतिशत की आयु 30-35 के बीच में है और 29
प्रतिशत महिलाएँ 30 वर्ष से काम आयु वाली हैं। महिलाओं को गुर्दे, माहवारी,
यूरिनरी ब्लैडर इत्यादि में बीमारी की झूठी जाँचों के ज़रिए ऑपरेशन के लिए
राज़ी किया जाता है और पच्चीस हज़ार तक की रक़म लेकर उनकी बच्चेदानियाँ निकाल
दी जाती हैं ! इन कारनामों को अन्जाम देने वालों लिए मीडिया शायद
"मृदु-हृदय" रखता है। ताज्जुब है कि मीडिया को इस तरह के कारनामों में
"सेक्सिस्ट" जैसा कुछ भी नज़र नहीं आता ! यहाँ नस्लें ख़त्म की जा रहीं हैं
और 'मीडिया-महान' ख़ामोश हैं, न जाने कब नशा टूटेगा ! इस मामले में मीडिया
ने क्या प्रोग्रेस की है, यह तो वह खुद ही बता सकता है। भला हो उन
ज़िम्मेदार पत्रकारों का जिनकी गिनती बहुत कम है लेकिन वे इस अंधी भीड़ से
अलग चलते हैं। वो तन पर बिना कपड़ों वाले किसान के परिवार के पास जाकर
आत्महत्या की वजह पूछते हैं, उनका दुःख साझा करते हैं, वो 'लक्मे फैशन वीक'
में अर्धनग्न मॉडलों में अपनी 'स्टोरी' नहीं तलाशते।
इंसानों
की शक्ल में दरिन्दे और भेड़िये सड़कों, होटलों, रेस्तरॉ, कारख़ानों और समाज
के दूसरे हिस्सों में रहते हैं। छात्राओं को इस विकारी समाज से सुरक्षित
रखने के लिए ज़रूरी है कि विश्विद्यालय उनकी सुरक्षा का ज़िम्मा भली-भाँति
उठाए एवम इस ओर प्रतिबद्धता का सुबूत दे। भविष्य में यदि अन्होनियाँ होती
हैं तो कल यह पुरुषवादी समाज उनसे शिक्षा के अवसर भी छीनने में नहीं
हिचकिचाएगा। फिर बेटियों को घरों में क़ैद रखा जायेगा, वो आला तालीम हासिल
करने बिहार, यू.पी., उड़ीसा से दिल्ली नहीं आ सकेंगी। फिर वही पुरुषों की
ज़बरदस्ती होगी, फिर वही ढाई फिट लम्बे घूंघट होंगे, फिर वही बाल विवाह
होंगे ! मीडिया ने फ़ौरन "सेक्सिस्ट" जैसा बड़ा इल्ज़ाम देश के प्रतिष्ठित
विश्विद्यालय पर लगा दिया। हम और आप इस अति-संवैधानिक संस्था को प्रजातंत्र
का चौथा स्तम्भ, लोकतंत्र का प्रहरी और न जाने क्या-क्या जान बैठे।
प्रशासन को नियंत्रित करना आसान काम नहीं है। केवल बयानबाज़ी, निरर्थक
बहसों, और चादर से बाहर पैर पसारने ने समाज नहीं सुधरते। अनेक मिसालें
मिलती हैं, मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक शिथिलता के पीछे यही बयानबाज़ी और
फ़तवेबाज़ी ज़िम्मेदार रही है, इन्हीं बहसों में फँसकर वामपंथ बर्बाद हो गया
और मीडिया आज भी इतना अतार्किक और ग़ैर-ज़िम्मेदार है ! यदि विश्विद्यालय
"सेक्सिस्ट" होते तो उनका रवैया कुछ और भी हो सकता था, छात्राओं को विभिन्न
सुविधाओं से वंचित रखा जाता, उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ावा न दिया
जाता। ख़ुद को "सुप्रीम कोर्ट" समझने से पहले मीडिया को समाज-सुधार की ओर
प्रयत्नशील रहना चाहिए। शीला की जवानी में "आई ऍम टू 'सेक्सी' फ़ॉर यू" जैसे
शब्दों को बहु-प्रसारित करने वाला मीडिया शिक्षा के मन्दिरों को
"सेक्सिस्ट" कहकर पुकारे और उनको "मूल्यों" का पाठ पढ़ाए, यह सरासर बेमानी
है।
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