नौवीं कक्षा में था। के. ए. कौशिक जी हिंदी पढ़ाते थे। वो हिंदी के उन क़ाबिल शिक्षकों में से थे जिनसे मैंने हिंदी साहित्य को जाना और सीखा। लेकिन एक विरोधाभास था। जितनी अच्छी वो हिंदी पढ़ाते थे, उतना ही वो कवियों और शायरों से चिढ़ते थे ! कहते थे कविताओं और साहित्य में कुछ नहीं रखा, विज्ञान की ओर क़दम बढ़ाओ !! विद्यालय में एक दूसरे शिक्षक और भी थे जिनका नाम ए. के. कौशिक था। वो इतिहास पढ़ाते थे और बताते थे कि दुनिया के इतिहास में कविताओं, नज़मों की कितनी अहम भूमिका रही है। यह सच्चाई है कि दादाभाई नौरोजी की "ड्रेन ऑफ़ वेल्थ" सामान्य जनमानस के लिए इतनी सुगम नहीं थी जितने 'इंक़लाब ज़िंदाबाद', 'एकला चलो रे' और 'वंदे मातरम' के उद्घोष थे। पाब्लो नेरुदा की रचनाओ के असर को विश्व क्षितिज पर आंकना मुश्किल है। अल्लामा इक़बाल ने एक शायर या कवि को देश का श्रृंगार और उसकी दृष्टि कहा है:
महफिले नज़मे हुकूमत, चेहरा-ए-ज़ैबा-ए-क़ौम
शायरे रंगीं नवा है, दीदा-ए-बीना-ए-क़ौम।
एक अच्छा शायर या कवि समाज को वो दिशा दे सकता है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। जहाँ न पहुचे रवि, वहाँ तो पहुंचे कवि !! मिर्ज़ा असदुल्लाह खां ग़ालिब उन्ही में से एक थे। दर्द, पीड़ा, और अभावों की रौशनाई में ज़िंदगी की क़लम को डुबोकर जो कुछ भी हकीकत के औराक़ पर उन्होंने अंकित किया वो आज भी उतना ही प्रासांगिक है कि जितना उनके दौर में था। दुनिया का हर साधारण इंसान अपने ऐतबार से उनकी रचनाओं को परख सकता है। परखने पर ऐसा महसूस होगा मानो ग़ालिब सिर्फ उसी अमुक व्यक्ति को ही कविताओं में ढाल रहे हैं। आर्थिक तंगी, औलाद की महरूमी, हवेली के खामोश सुतून और एक बेचैन सा आँगन---ये सब तस्वीरें कहीं न कहीं आज भी आम आदमी की ज़िन्दगी का हिस्सा हैं जिसकी तर्जुमानी ग़ालिब के कलाम में बखूबी होती हैं। ग़ालिब सिर्फ एक शायर ही नहीं थे बल्कि 'साक्षात् ज़िंदगी' थे।
ग़ालिब की रचनाओं का एक दूसरा पहलू भी है। शायर क्या लिखता है? क्यूँ लिखता है? किन हालात के कारण लिखता है? और अपनी रचनाओ से क्या ज़ाहिर करना चाहता है ?-- ये आप और हम तय नहीं कर सकते। विशेषकर, जब ग़ालिब की बात आती है तो ये और भी मुश्किल हो जाता है। उस्ताद ज़ौक़ की सवारी गली कासिमजान से गुज़र रही थी। ज़ौक़ साहब उस वक्त मुग़ल शहंशाह के सबसे अज़ीज़ शायरों में से थे, सरकारी तनख़्वाह पाते थे। बड़े बा-वकार थे। जब पालकी गली से गुज़री तो मियाँ ग़ालिब ने एक मिसरा जड़ दिया,
"बना है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता..."
ये टिप्पणी ज़ौक़ साहब और उनके प्रशंसकों को नगवार गुज़री। मुग़ल दरबार में शिकायत हुई। ग़ालिब को समन जारी हुए। ग़ालिब हाज़िर हुए। बादशाह ने तेश में पूछा मियाँ क्या वो सब सच है जो आपने कहा? ग़ालिब बेबाक बोले: हुज़ूर आपने सही सुना, वो मिसरा मेरी नयी ग़जल के मकते (अंतिम शेर) का मिसरा-ए-ऊला (पहला पंक्ति) है। बादशाह ने हुक्म दिया, अगर ऐसा है तो पूरा मकता सुनाईए! ग़ालिब ने कहा:
बना है शाह का मुसाहिब फिरे है इतराता,
वगरना न शहर में ग़ालिब की आबरु क्या है।
यह सुनकर बादशाह का ग़ुस्सा छूमंतर हो गया, ललाट की सिकुड़न अधरों की रश्मियों में बदल गयी और फिर उन्होंने ग़ालिब को उनकी पूरी ग़ज़ल सुनने के बाद ही छोड़ा।
अक्सर हमारे समाज में शायरो और कवियो को सम्मानों और पुरुस्कारों की कसौटी पर तौला जाता है। श्री काटजू ने ग़ालिब के लिए भारत रत्न की वकालत की। ये सम्मान किसी शायर की ज़िंदगी में अच्छे लम्हे साबित हो सकते हैं किन्तु शायर जो लिखता है वो पुरुस्कारों की तृष्णा के लिए नहीं लिखता ; वो तो समाज को आईना दिखाता है। उसी तरह ग़ालिब का दायरा किसी भी पुरुस्कार से बढ़कर है। ग़ालिब को इस कसोटी पर रखना उस वक्त और भी संकुचित हो जाता है जब देश के श्रेष्ठतम सम्मान को मुहम्मद रफ़ी, ध्यानचंद, कुमार गन्धर्व, और महात्मा गांधी जैसे दिग्गजों की परछाई से भी दूर रखा जाता है ! पुरुस्कार श्रेष्ठता का पैमाना नहीं हो सकते !
ग़ालिब इंसानियत को उन परेशानियो से मुक्त देखना चाहते थे जो ख़ुद इंसान ने खुद पैदा की हैं। ग़ालिब ने इस संसार को "बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल" कहा, यानि "बच्चों के खेल का मैदान" !! वो कहते थे कि शिया-सुन्नी, हिन्दू-मुस्लिम और ऊँच-नीच की दरारें इंसान की 'बचकानी' सोच का सबूत हैं।
जब इश्क़ और मुहब्बत की बात आती है तो उसकी परिभाषा भी ग़ालिब के बिना पूरी नहीं होती। इश्क़ को आग का दरिया कह गए नौशे मियाँ !! सात मृत बच्चों के बाप ग़ालिब को १४ फरवरी को दिल का दौरा पड़ा। उसी १४ फरवरी को जिसे आज के युवा जन 'इश्क़ के पर्व' यानि 'वेलेंटाइन डे' के रूप में मानते हैं !! ग़ालिब तो इश्क़ को आग का दरिया बताते हैं लेकिन आज की युवा पीढ़ी बीस-बीस रूपये के गुलाब और कैडबरी के ज़रिये इश्क़ फरमा लेती है! वास्तव में ये सच्चा इश्क़ नहीं बल्कि जोबन की तृष्णा है जो गुलाब से आरम्भ होती है और कामुकता पर संपन्न हो जाती है। ग़ालिब का इश्क़ वही है जो सावित्री के पवित्र प्रेम में देखने को मिलता है। विधि के विधान के भिमुख पति के प्राण वापस ले आना --- यही "आग का दरिया" है। और यही मूल्यों और आदर्शो की अनंत दुनिया में आज भी प्रासांगिक है। ग़ालिब की ये पंक्तियाँ बतौर श्रद्धांजलि प्रस्तुत हैं, इस कामना के साथ कि ईश्वर ग़ालिब की आत्मा को हमेशा जीवंत और अनुकम्पाओं में रखे:
ये मसाइले तसव्वुफ़, ये तेरा बयान ग़ालिब
तुझे हम वाली समझते, जो न बादाख़ार होता।

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