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भ्रष्टाचार का हलाहल

9 दिसम्बर 2010 को जनसत्ता में प्रकाशित

भारत एक लोकतांत्रिक देश है जिसके संविधान में न्याय, स्वाधीनता, समानता, निष्पक्षता, जैसे शब्द बहुतायत से मिलते हैं. इसके अतिरिक्त दुनिया हिंदुस्तान को इसकी सामाजिक जीवनशैली, भोगोलिक सुन्दरता तथा धन धान्य से परिपूर्ण गवेषणात्मक सम्पदा द्वारा भलीभांति जानती है. यह वह  देश है जिसके बापू को देखकर दुनिया ने प्रेम और अहिंसा का भाव सीखा. सीखा-कि परमार्थ क्या होता है. सीखा कि- यदि किसी से बदला लेना है तो  उसके साथ ऐसा बर्ताव करो  कि वह तुम्हारे साथ मुहब्बत से पेश आए. हमारा संविधान हमारे देश की अभूतपूर्व उपलब्धि है. यह हमें हर प्रकार कि आज़ादी मुहय्या कराता है. कन्या भूर्ण के जीवन से लेकर मरणोपरांत परमवीर  चक्र की बात इसमें निहित है. संविधान का अनुच्छेद २१ प्रत्येक नागरिक को ' जीने का हक' और 'व्यक्तिगत स्वाधीनता' से नवाजता है.

आज हम अपनी आज़ादी का हद से ज्यादा फाएदा उठा रहे हैं. इसका स्पष्ट उदाहरण हमारे राजनेताओ की स्वार्थयुक्त और भ्रष्ट नीतियाँ हैं. इस बात को देश कि वर्तमान स्थिति से भलीभांति समझा जा सकता है. उत्तर प्रदेश  का अनाज घोटाला, आदर्श सोसाइटी घोटाला, राष्ट्रमंडल  खेलों का वैल्थगेम, क्वींस बेटन घोटाला, पामोलीन घोटाला, तथा २- जी स्पेक्ट्रम का वित्तीय महाफेर मुल्क के मौजूदा हालात का एक छोटा सा नमूना हैं. भ्रष्टाचार के कारण आज हमारी संसद एक पखवाड़े से शिथिल बनी हुई है. लगता है भ्रष्टाचार कि गति वक़्त कि रफ़्तार से भी तेज़ है तथा हमारी संसद मूक बधिरों के समान सब कुछ 'केवल' देख रही है. देश में योजनाये तो बनती हैं लेकिन अमल नही होता. हमारी सरकार नित नई योजनायें बनाती है किन्तु यह भूल जाती है कि जब पिछली योजनायें  ही सुचारू नहीं है तो नई का क्या फाएदा ? जब कोई बच्चा पहली रोटी को खाए बिना ही दूसरी पर लपक पड़े तो हम उसकी नीयत को 'ख़राब नीयत' करार देते हैं. वस्तुत: आज हमारे नेताओं की भी यही नीयत है.

आज नयी योजनाओ का लोकार्पण इस उद्देश्य से नहीं किया जाता कि नयी योजनाओ  को पिछली से बहतर  बनाया जायेगा अपितु नयी योजनायें  कदाचित इसलिए बनायीं जाती  है ताकि उनके बहाने भ्रष्टाचार और लूटमार के नए अवसर निकले जाएँ. कैसे जनता और देश का पैसा ठिकाने लगाया जाये और इसे 'एपेटाईज़र' के रूप में प्रयोग करके अपनी धनतृष्णा को और अधिक त्वरित किया जाये. राज्य के एक ही मंत्री को १८ महकमों का कार्यभार सौंप देना किसी राज्य सरकार कि मूढ़त्व मंशा का द्योतक है.  इससे यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि शासन प्रणाली का शोषण सीमाओ के पार  हो चुका  है. फलत: आज नए पुल एक हफ्ते के भीतर ढह जाते हैं और  सेकड़ो लोगो की जान-माल के नुकसान का करण बनते हैं.

पिछले वर्ष माननीय मनमोहन सिंह ने 'माओवाद' को देश की सुरक्षा में सबसे बड़ा आन्तरिक खतरा बताया था. सिंह साहब शायद भ्रष्टाचार को भूले हुए हैं. यदि ऐसा ना होता तो आज सत्तारूढ़ दल 'संयुक्त जाँच समिति' के केवल नाम भर से थर थर कांपने ना लगता. संसद की शिथिलता के लिए सत्तारूढ़ दल की जिम्मेवारी अधिक बनती है. उसको भय है कि कहीं 'सत्येमेव जयते' कि उक्ति चरितार्थ ना हो जाये.  ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती है. ठीक उसी तरह विस्फोट तब होता है जब बारूद को आंच लगती है. यदि विस्फोट से बचना है तो हमें बारूद से बचना होगा, नहीं तो धमाका हमारे ही घर में होगा. देश को विकसित बनाना है तो हमें हर क़दम फूंक-फूंक कर रखना होगा.पता नही हमारे नेताओं कि धन तृष्णा कब शांत होगी. वतन के मौजूदा  हालात को देखकर अल्लामा इकबाल का एक शेर  याद आता है:

वतन कि फ़िक्र कर नादाँ मुसीबत आने वाली है,
तेरी बरबादियों के मशवरे  हैं आसमानों में,
ना समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्ताँ वालो,
तुम्हारी  दास्ताँ तक भी ना होगा दास्तानों में.

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