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मौला अली मुर्तज़ा को "अलैहिस्सलाम" कहना !

पिछले साल अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय में मोहसिन-उल-मुल्क हॉल की वार्षिक पत्रिका के स्वर्ण जयन्ती विशेषांक (ग्लोबल एडिशन) को प्रकाशित करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी थी। ईश्वर की महान अनुकम्पाओं और मुहम्मद सल. के फैज़-ए-अक़दस की बदौलत ये काम पूरा हो गया। 

ये प्रोजेक्ट मेरे लिए मेरे किसी भी अहम काम से बढ़कर था। एक ड्रीम प्रोजेक्ट था। विश्विद्यालय से मिलने वाला फण्ड काफ़ी नहीं था और किसी तरह की कोई स्पॉन्सरशिप लेकर पत्रिका को विज्ञापन से भरकर एक "पूँजीवादी ब्रोशर" बनाना अपने उसूलों के ख़िलाफ़ था।

 इसलिए पत्रिका की डिज़ाइनिंग का काम खुद सम्हाला ताकि कुल मिलाकर पच्चीस से तीस हज़ार की रक़म बच जाये और अधिकाधिक प्रतियाँ छप सकें और ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को ये पत्रिका मिल जाये। चार महीने में पत्रिका तैयार की, अपने भाई की मदद से उसी के लैपटॉप पर जो अखिलेश सरकार ने उसको दिया था। पत्रिका देखकर अमुवि कुलपति को बहुत प्रसन्नता हुई। कहने लगे "इट इज़ अ रिमार्केबल वर्क" और लेटर भेजकर पूरी सम्पादकीय टीम को चाय पर बुला लिया।

पत्रिका जब पाइपलाइन में (निर्माणाधीन) थी, बतौर सम्पादक अनेक विवाद झेलने पड़े लेकिन शुक्रगुज़ार हूँ पत्रिका के सेंसर जनाब ग़ुफ़रान साहब, उर्दू सम्पादक जनाब मुहम्मद सलमान और सह-सम्पादक जनाब ऐनुल हुदा साहब का जिन्होंने मेरी होंसला अफ़ज़ाई की। बहरहाल, पत्रिका निकले हुए 5-6 महीने हो गए हैं।  कुछ कमियाँ पत्रिका में देखी गयीं हैं।  जैसे अमेरिका में हमारे एलुमनाई हज़रात ने एक फ़ोटो पर ऐतराज़ किया।  उस ग़लती को स्वीकारते हुए मैं बतौर संपादक और डिज़ाइनर माफ़ी तलब करता हूँ।

दूसरी चीज़, अभी कुछ दिनों पहले अपनी रिसर्च के ताल्लुक़ से अमुवि जाना हुआ। सीनियर छात्रों और जूनियर बन्धुओं ने एक बात पर क्लैरिफ़िकेशन माँगा कि मैगज़ीन में इस्लाम के चौथे ख़लीफ़ा हज़रत अली रज़ि अल्लाहो तआला अन्ह के नाम के आगे "अलैहिस्सलाम" क्यों लगाया गया है ? ये तो ग़लत है और शरीयत के ख़िलाफ़ है। किसी सहाबी या अहलेबैत के किसी नफ़्स-ए-क़ुदसी को नबी का दर्जा नहीं दे सकते।  ऐसा करना "अहले-सुन्नत" का काम नहीं।  ये तो शियीयत (shiaism) है।

भद्र लोगों ने मुझसे पुछा कि आप की 'आइडियोलॉजी' क्या है। आप शिया तो नहीं ? आपके फेसबुक से भी शियीयत की बू आती है !! अल्हम्दुलिल्लाह, ये सब पूछने वाले ज़्यादातर सुन्नी थे; खुद को ग़ौस-ए-आज़म, ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती जैसे औलादे अली का ग़ुलाम कहने वाले। हज़रत अली को विलायत और तसव्वुफ़ का चश्मा मानने वालो ने इस बात पर भी ऐतराज़ कर डाला कि अली को "मौला" कहना कहाँ से सीखा आपने ? ये सारा ग़लत है !!! मैं अल्लामा इक़बाल की वो लाइन पढ़ने लगा--"कभी मौला अली ख़ैबर-शिकन इश्क़"। बोले: क्या कहा आपने ? मैने कहा: कुछ नहीं, मुझे माफ़ कीजिये, आगे से आपके सामने न मौला कहूँगा न अलैहिस्सलाम। आदत के मुताबिक़, मैं किसी बहस में नहीं पड़ना चाहता था, सो वहाँ से निकल आया।

ज़्यादा पढ़ा-लिखा भी नहीं हूँ, किसी मदरसे नहीं गया हूँ, फूफी ने घर में क़ुरआन पढ़ाया, कभी किसी मदरसे या स्कूल में उर्दू भी नहीं पढ़ी।  बचपन से एक ग़ैर-मुस्लिम स्कूल में पढ़ा हूँ जिसके बारे में लोग कहते हैं कि "ये आरएसएस यानि संघ का स्कूल है। " उसी स्कूल से इण्टर किया, इण्टर में बायोलॉजी में फ़ेल भी हुआ। अल्हम्दुलिल्लाह। :)

इसलिए जब अंदर कुछ है ही नहीं तो बहस किस बात की !!!

अली को, फ़ात्मा को, हसन को या हुसैन को "अलैहिस्सलाम" क्यों कहें ? ये मैं नहीं बता सकता।  ये क़ुरआन में "अन-कुमुर्रिजसा" से पता लगेगा कि जब "कुन" से सब कुछ पैदा करने वाला रब्बे "क़दीर" किसी शख़्स को "बिलकुल पाक-साफ़ और ततहीर" करना चाहे तो क्या वो "मासूम" नहीं बन सकता ? दलील यही थी न कि फ़रिश्ते और रसूल "मासूम" होते हैं। सो भाई लोगों, डोन्ट अंडर-एस्टीमेट द पावर ऑफ़ योर लार्ड।

काबा के अंदर पैदाइश, पैदाइश के बाद सिर्फ़ मुस्तफ़ा का पहला दीदार, फिर नबी के लोआब का फैज़ पाना, ग़दीर में मुस्तफ़ा की यूनिक डिक्लेरेशन, नबी और रसूलों के बाद क़ुरान की आयतों का नुज़ूल सबसे ज़्यादा अली के ताल्लुक़ से होना, अली को छोड़कर सभी सहबियों के घर के दरवाज़े मस्जिदे नबवी के सहन में खुलने पर अल्लाह का रोक लगाना, आयते मुबाहला और नफ़्से मुस्तफ़ा, इस्लाम का मुजहिदे अव्वल, बाब-ए-इल्म और न जाने क्या क्या !!!

कोई भी सरफिरा अल्लामा इक़बाल यूँ ही किसी को भी "मौला" नहीं कहने लगता, उसके क़लम से यु ही कोई इस तरह की बिदअत नहीं हो जाती-"मुस्लिम-ए-अव्वल शहे मर्दा अली, इश्क़ रा सरमाया ईमाँ अली " आपका अल्लामा मौला अली को ईमान का "सरमाया" बताता है, आपके ग़रीब-नवाज़ हुसैन को दीन बताते हैं, फ़रमाते हैं: "दीन अस्त हुसैन" !!

रमूज़े बेख़ुदी पढ़िए और जान लीजिये कि एक औरत का सबसे बेहतरीन नमूना कौन  है ? और क्यों आपके नबी उसको अपनी तरफ़ आता देखकर खड़े हो जाया करते थे, हाथों का बोसा लिया करते थे और कहा करते थे "बेटी फातमा! तुझ पे मेरे माँ-बाप क़ुर्बान"। इक़बाल पागल नहीं हैं जो यूँ ही कह देते हैं कि "अगर मुहम्मद की शरीयत की बेड़ी मेरे पैरों में न होती तो मैं फ़ात्मा ज़हरा की क़ब्र का तवाफ़ करता, और उस मक़ाम पर सजदा करता।" "रमूज़े बेख़ुदी" पढ़िए, पढ़ने से पहले अपने कठमुल्ला आक़ा से इस टाइटल का मतलब पूछ लेना। फायदा होगा।

ख़ुदा के यहाँ पंजतन के अलग ही मरातिब हैं और आप हम को इसलिए "शिया" कह देते हैं क्यूकी हमने अली या फात्मा को सिर्फ़ "सलाम" अर्ज़ कर दिया। आला हज़रत (रह.) फ़रमाते हैं, 'कैसे बिखरे हुए हैं मदीने के फूल, कर्बला तेरी किस्मत पे लाखों सलाम' कर्बला की किस्मत पर तो सलाम अर्ज़ किया जा सकता है लेकिन जिस हुसैन ने उस सहरा को "मुअल्ला" बना दिया उसके बाबा को सलाम अर्ज़ करने पर आप हंगामा खड़ा करते हैं !! अक़्ल पर पत्थर पड़ गए हैं क्या ? अली से इतना बुग्ज़ ?? बाज़ आइये, कठमुल्लों के चंगुल से निकलिए। फ़िरक़ा बाज़ी की दुकाने बंद कीजिये !! दकियानूसी सोच से बाहर निकलिए।

आप हनफ़ी हैं ! आप जानते होंगे कि इमाम अबु-हनीफ़ा को "इमाम-ए-आज़म" बनाने वाली ज़वाते मुक़द्दस कौन थीं ? इमाम बाक़र और दूसरे आइम्मा-ए-अहलेबैत से इल्म सीखने पर इमाम आज़म पर 'शिया' की तोहमत लगीं ! वो तोहमत लगाने वाले कौन थे, कभी सोचा आपने ? उनके अक़ाइद की जाँच की। इमाम नसाई का नाम सुना है आपने? अली के मर्तबे को लेकर "खासइस-ए-अली इब्ने अबु तालिब" लिखी थी उन्होंने। कहिए वो भी शिया हो गए। 

हमें तो आप रोक सकते है।  बाबा फरीद को रोका आपने ?  "अलैहिस्सलाम" का सवाल इमाम बुख़ारी से पुछा आपने, जो तमाम बुख़ारी शरीफ़ में इस "शियीयत" को जगह दे बैठे हैं। (तसवीरें देखिये) 

रही बात मेरे अक़ीदे की तो सिद्दीक़, फ़ारूक़, उस्मान और हैदर को तोलना अपने बस का नहीं। सभी सरताज हैं।किसी एक की भी ग़ुलामी नसीब हो जाये तो खुशनसीब समझूंगा। महशर में इनमें से कोई भी अगर ये कह दें कि ये मेरा ग़ुलाम है, तो अपना बेड़ा पार हो जाये। हमने अली को मौला कहना ही "सिद्दीक" और "उमर" से सीखा है !

अपनी तकलीफ़ को इक़बाल के इन अशआर में लिखकर उन सभी हज़रात से माफ़ी चाहता हूँ:

दिल की आज़ादी शहंशाही, शिकम सामान-ए-मौत
फैसला तेरा तेरे हाथों में है, दिल या शिकम !!
ऐ मुसलमाँ ! अपने दिल से पूछ, मुल्ला से न पूछ
हो गया अल्लाह के बन्दों से क्यों ख़ाली हरम !!

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