भारत एक ऐसा देश है जिसको प्रकृति ने हर प्रकार की प्राकृतिक सम्पदा से
परिपूर्ण किया है। इतना कुछ इस देश के जल, थल एवम वायुमण्डल में मौजूद है
कि आने वाली असंख्य शताब्दियों में जीवजंतुओं की "आवश्यकताओं" की पूर्ति
भली-भांति कर सकता है। किन्तु जैसा महात्मा गाँधी ने कहा कि 'प्रकृति हर
एक की हर आवश्यकता की पूर्ति हेतु प्रचुर है, लोभ के लिए नहीं'। जब
आवश्यकताएं लोभ में परिवर्तित हो जाती हैं तो भयावह परिणाम सामने आते हैं।
विश्वबैंक की एक रपट के मुताबिक़ प्राकृतिक आपदाओं से भारत को प्रतिवर्ष
15,50,446 अमेरिकी डॉलर की आर्थिक क्षति होती है। एक दूसरे अनुमान के
मुताबिक़ प्राकृतिक आपदाओ में होने वाला नुकसान भारत के सकल घरेलू उत्पाद का
दो प्रतिशत और कुल राजस्व का बारह प्रतिशत होता है।
परिस्तिथिकीय
विनाश का दारोमदार मानवीय हस्तक्षेप पर है। इस विनाश लीला के अनेक कारक
हैं। विकास के नाम पर मनुष्य की बढ़ती भूख इसके लिए निःसंदेह उत्तरदायी है।
मानव विकास रिपोर्ट (2011) मौजूदा अंधाधुंध विकास को धरती के साथ खिलवाड़
बताती है। रिपोर्ट खुलासा करती है कि आपदाओं की संभावना को बढ़ाने वाले
कथित विकास के प्रवर्तक कुछ अमीर देश पूरी पृथ्वी के साथ जुआ खेल रहे हैं।
इसमें निजी कंपनियां मुनाफ़ा कमा रही हैं और पूरी मानवता कीमत चुका रही है।
पारिस्थितिकी तंत्र के जितने भी घटक हैं उनमें मानव ही सबसे शक्तिशाली
हैं। वह प्रकृति का अपनी सुख-सुविधा से लेकर वैश्विक वर्चस्व तक के लिए
उपयोग करता है। वह प्राकृतिक संसाधनों का न सिर्फ दोहन करता है, बल्कि
उन्हें कृत्रिम तरीको से नियंत्रित भी करता है। पारिस्थितिकी-तंत्र में
अकेला मनुष्य ही ऐसा जीव है, जो पूरी पारिस्थितिकी को छिन्न-भिन्न करता है।
पारिस्थितिकी पर जो ख़तरा है, वह मानव ने उत्पन्न किया है।
मानव की
विकास प्रक्रियाएं पर्यावरण और पारिस्थितिकी के सभी चक्रों को प्रभावित कर
रही हैं। तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या व औद्योगीकरण के दौर में ज़्यादा-से-ज़्यादा
सुविधा और तकनीकी विकास हासिल करने के लिए मनुष्य प्रकृति का भरपूर दोहन
कर रहा है। परंतु हम निश्चित तौर पर यह नहीं कह सकते कि हमारा स्थायी विकास
हो रहा है, क्योंकि पारिस्थितिकी-तंत्र में असंतुलन बहुत तेज़ी से हो रहा
है। मनुष्य के बेतहाशा विकास के लोभ ने प्रकृति निर्मित पारिस्थितिकी-तंत्र
पर प्रतिवूफल प्रभाव डाला है। नोबेल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री जोसफ
स्टिगलिट कहते हैं ‘‘कदाचित कुछ ऐसे ग्रह होते जहां हम अल्प लागत में ही जा
सकते, खासकर उन हालात में जिस के बारे में वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं
कि हम मानव निर्मित विनाश के कगार पर खड़े हैं। सच तो यह है कि ऐसा कोई
ग्रह नहीं है। तो फिर हम जल्दी समझ क्यों नहीं रहे?"
चमोली, भुज,
उत्तराखंड की त्रासदियाँ हमें उस खतरे की दस्तक देतीं हैं जिसकी पृष्ठभूमि
हम खुद ही तैयार कर रहे हैं। पर्यावरण पर हद से ज़्यादा दबाव मानवता के
अस्तित्व को ही समाप्त कर देगा। हमने हरित क्रांति देखी जिसका मक़सद तो उचित
था किन्तु शैली ग़लत। भूमि के छोटे से टुकड़े पर हद से ज़्यादा दबाव डाला
गया, रासायनिक उर्वरक, पानी की बर्बादी, फसल चक्रानुक्रम का अभाव- इन सब ने
मृदा को उत्पादन क्षमता को निम्न स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया है। उत्तराखण्ड
की घटना से एक बात और स्पष्ट हो जाती है कि भारत में आपदा प्रबंधन अभी
इतना विकसित नही है। आपदा प्रबंधन केवल हमारी सरकारों की ज़िम्मेदारी नही
होनी चाहिए। सरकारें नीतियाँ बनाती हैं, विधि-निधि की समस्त बारीकियों को
देखती हैं किन्तु जब तक हमारी सृजनात्मक भागीदारी सरकार के साथ नही होगी तो
स्थिति ज्यों की त्यों बनी रहेगी।
2011 के ‘भारतीय वन सर्वेक्षण’ के
मुताबिक, देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 23.81 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र
है। जबकि पचास वर्ष पहले तक देश का 40 प्रतिशत भू-भाग वनों से आच्छादित था।
इतनी तेज़ी से वनों का सफाया ही वैश्विक तपन का कारण बन रहा है और दुनिया
के बड़े-बडे़ ग्लेशियर पिघल रहे हैं।
यह संकट भारत में और सघन है।
हाल ही में विशेषज्ञों की रिपोर्ट में कहा गया कि जिस तरह जलवायु परिवर्तन
के कारण तापमान बढ़ रहा है, अगर इसी तरह बढ़ता रहा तो पूर्वी हिमालय
के अधिकांश हिस्से से बर्फ ख़त्म हो जाएगी और इससे अरुणाचल प्रदेश की
पारिस्थितिकी तंत्र पर गंभीर ख़तरा पैदा हो जाएगा। तापमान में 0.5 डिग्री
सेल्सियस की बढ़त होने पर पहाड़ी इलाक़ो के लगभग 912 वर्ग किमी क्षेत्र की
बर्फ़ पिघल जाएगी। ‘स्टेट एक्शन प्लान आॅन क्लाइमेट चेंज’ के मुताबिक, 2030
के दशक में अधिकतम तापमान में 2.2 से 2.8 डिग्री सेल्सियस की बढ़त की
संभावना है। तो क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि आने वाले कुछ समय में
हिमालयी क्षेत्र हिमविहीन हो जाएंगे?
प्रकृति में मानवीय दखल से
वन्यजीवन को जो नुकसान हो रहा है, उस के न रुकने के दो कारण हैं। एक तो
आधुनिक विकास की धारा ऐसी है कि उसे रोका नहीं जा सकता, चाहे प्रकृति को
कैसा भी नुक़सान हो। विकास की दौड़ में कोई भी देश पीछे नहीं रहना चाहता।
ज़ाहिर है कि इस सिलसिले में हर देश अपने भू-भाग पर मौजूद प्राकृतिक
संसाधनों का ही दोहन करता है। फलस्वरूप, पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होता
है। दूसरे, अब तक हमारी सरकारों के पास जंगलों के संरक्षण को लेकर ऐसी
प्रभावशाली नीतियां नहीं हैं कि वन्यजीवों का शिकार, अंधाधुंध दोहन आदि
नियंत्रित हो। यदि नीतियाँ हैं भी तो जनता का सहयोग नहीं है।
भारतीय
में आदिकाल से ही प्रकृति संरक्षण संबंधी चिंता की धारा मौजूद रही हैं।
भारतीय संस्कृति में प्राकृतिक शक्तियों को देवता स्वरूप माना गया है।
सूर्य, चंद्रमा, वायु, अग्नि वगैरह देव हैं और नदिया देवियां हैं, धरती को
माता कहा गया है। वृक्ष देवों वेफ वास-स्थल हैं। कुएं, तालाब और बावडि़यों
के धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व हैं। पशु-पक्षियों और जानवरों को भी इसी तरह
श्रेष्ठता प्रदान की गई है। मत्स्यपुराण में एक वृक्ष को दस पुत्रों
के बराबर बताया गया है। इस सबका सबसे बड़ा फायदा यह था कि मनुष्य इन सबकी
रक्षा करना अपना धर्म समझता था। औद्योगिक क्रांति और आधुनिक विकास की आंधी
ने इन धारणाओं को ध्वस्त कर दिया है। मानव की लालसा को पंख लग गए हैं।
उपभोक्तावादी
जीवन-मूल्य मनुष्य वेफ जीवन पर हावी हो गए और प्राकृतिक संसाधनों का
बेलगाम दोहन शुरू हो गया। और आज स्थिति यह है कि समस्त विश्व पर्यावरण
प्रदूषण और पारिस्थितिकी असंतुलन की भयावह समस्या से आक्रांत है। नदियां
सूख रही हैं। जीव-जंतुओं की प्रजातियां तेज़ी से ख़त्म हो रही हैं। हरे-भरे
भू-भाग को काटकर वीरान किया जा रहा है। मनुष्य यह सब देख-समझ रहा है और
विकास की अंधी दौड़ के बीच पर्यावरण बचाने को लेकर बहस-मुबाहिसे कर रहा है।
यह समझने की ज़रूरत है कि अपना पर्यावरण और पारिस्थितिकी बचाने की
जिम्मेदारी से हम बचते रहे तो अपने हाथों ही अपने विनाश की कहानी लिखेंगे।
(नोट: इस लेख में प्रकाशन विभाग, भारत सरकार के विभिन्न प्रकाशन के अंश शामिल हैं, ये पूरी तरह लेखक की मूल कृति नहीं है )

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