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उर्दू की बदहाली

30 अगस्त 2013 को प्रकाश झा निर्देशित "सत्याग्रह" फ़िल्म मन्ज़रे आम पर आई थी। फ़िल्म में करीना कपूर ने एक जगह "मुख़ालफ़त" शब्द की जगह "ख़िलाफ़त" शब्द बोला है !!! करीना का सँवाद कदाचित निर्देशक, एडिटर इत्यादि की दृष्टि में नहीं आ पाया अथवा उसको अनदेखा कर दिया गया। इस तरह के संवाद धारावाहिकों तथा फिल्मों में अब आम होते जा रहे हैं। "ग़ुरबत" को "ग़रीबी" के अर्थ में ले लिया जा रहा है अथवा कई बार उच्चारण ही भद्दा हो जाता है जैसे वीर-ज़ारा में रानी मुखर्जी ने 'ख़ुदा' शब्द का उच्चारण जिह्वा को तालु से मिलकर किया है जिससे उसका अर्थ 'ईश्वर' नहीं बल्कि किसी गड्ढे का 'खोदना' हो जाता है। आम तौर पर शब्दों को लिंग बदल कर बोला जा रहा है जैसे 'अवाम', 'सोच', 'क़लम' स्त्रीलिंग में इस्तेमाल हो रहे हैं।  पानी उस वक़्त सर से ऊपर उठ जाता है जब कोई शेर-ओ-शायरी अथवा उर्दू काव्य से सम्बन्ध रखने वाला यह कह उठता है, "देखो ! यह 'पहली' क़ितआ कितनी उम्दा 'लिखी' है!!"

जनसत्ता में कुलदीप कुमार के आलेख (7 सिंतम्बर) को यदि गहराई से पढ़ा जाये तो इस तरह के मज़ाक जो फिल्मों तथा साहित्य में हो रहे हैं, वो आपकी आँखों के सामने स्वत: ही मंडराने लगेंगे। हाल ही में आए उच्चतम न्यायालय के फैसले के सन्दर्भ में कुलदीप जी ने हिन्दी-उर्दू विवाद ख़त्म करने की बात को बख़ूबी सामने रखा। हिंदी-उर्दू विवाद की जड़ें, हर विवाद की भाँति, साम्प्रदायिकता में ही मिलती हैं। आज से सौ साल पहले, जब साम्प्रदायिकता इतनी भयावह नहीं थी, जब संप्रदायों की बुनियाद पर मुल्क के तीन टुकड़े नहीं हुए थे, लाला हरदयाल ने पहली नवम्बर 1913 को सैनफ्रांसिस्को स्थित युगांतर आश्रम से "ग़दर" पर्चे का पहला अंक निकाला जिसके लिए उन्होने उर्दू को चुना। विदित रहे कि लाला हरदयाल ने  बी.ए. और एम.ए. की उपाधि क्रमशः सेंट स्टीफेंस कॉलेज तथा पंजाब विश्विद्यालय से संस्कृत में ही प्राप्त की। पिछले वर्ष अलीगढ़ में एक व्याख्यान माला में इतिहासकार इरफ़ान हबीब ने बताया कि राजा राम मोहन रॉय फ़ारसी के इतने बड़े विद्वान थे कि आपको आज अलीगढ़ विश्विद्यालय परिसर में ऐसा विद्वान चिराग़ लेकर ढूँढने से भी नहीं मिलेगा !!

आज देश के अग्रणी उर्दू अख़बार पत्रकारिता के उस स्तर को ही नहीं छू पाते हैं जहाँ से मौलाना आज़ाद ने 13 जुलाई 1912 को 'अल-हिलाल' की शुरुआत की थी, तिस उस पर अमुक सम्पादक का यह दावा कि 'मेरा' अख़बार इक्कीसवीं सदी का अल-हिलाल हैं---बेहद बचकाना और नाटकीय लगता है। निराशापूर्ण है कि देश की उर्दू पत्रकारिता आज कुछेक की बपोती रह गयी है और अखबारों को 'मुसलमानी' बनाने के हर सम्भव प्रयास किए जा रहे हैं, अरब देशों की राजनैतिक सरोकार वाली खबरों को भी धार्मिक स्थलों के चित्रों के साथ धड़ल्ले से छापा जा रहा है ताकि वो अख़बार 'मुसलमान' नज़र आए और उसको 'मुसलमान' ही खरीदें ! यही कहानी हिंदी अख़बारों के साथ है जिनमें धर्म और आध्यात्म वाले पृष्ठों अथवा स्तम्भों में केवल एक ही सम्प्रदाय (धर्म नहीं ) के लेख पढ़ने को मिलते है जिसकी वजह से वे पृष्ठ अथवा स्तम्भ दूसरे सम्प्रदायों के लिए केवल रद्दी ही होते हैं। हाल ही में गढ़ा गया शब्द "लव-जिहाद" इन्हीं हिन्दी अखबारों की करतूतों से समाज में ज़हर भर रहा है। अफ़सोस की बात यह है कि ऐसे अख़बार रीडरशिप सर्वे में उच्च पायदान पर जगह बनाने में कामयाब हो जाते हैं, पब्लिक ओपिनियन अर्थात जनमत को किसी भी राजनैतिक दल के पक्ष में झुकाकर उसको 'जन-गण-मन' का अधिनायक बना देते हैं। इस तरह भाषा के ध्रुवीकरण में साम्प्रदायिकता का एक अहम किरदार रहा है और इन्ही विवादों ने उर्दू को हाशिए पर लाकर खड़ा कर दिया है। 

उर्दू की लाचारी में जितना योगदान द्वेष का रहा है उतना ही ज़ुल्म शैक्षिक संस्थानों में इसके साथ हुआ है।  उर्दू भाषा में उतना अन्वेषण तथा अनुसन्धान नहीं हो पाया जितना बदलते समय के साथ इसकी ज़रूरत थी। आज़ादी के बाद, विशेषकर आर्थिक उदारीकरण के बाद ये पच्चीस साल का अरसा उर्दू में भाषीय शोध के लिए बहुत निराशाजनक गुज़रा।  यही वजह है कि बायोटेक्नोलॉजी का हिंदी समकक्ष 'जैवप्रोद्योगिकी' आसानी से मिल जाता है लेकिन उर्दू में इसको क्या कहेंगे ये जानना ज़रा मुश्क़िल सा लगता है ! आप इंजीनियरिंग को हिन्दी में 'अभियांत्रिकी' कह सकते हैं लेकिन उर्दू में इसका समकक्ष क्यूँ नहीं है ? और यदि है तो अब तक पर्दों में छुपाकर क्यों रखा गया है। दरअसल, उर्दू भाषा के इस पहलू पर ध्यान दिया ही नहीं गया। उर्दू को सिर्फ़ मुशायरों तक ही दिल-बहलाने का साधन समझा गया है। उर्दू के प्रति इस रवैये ने उर्दू शायरी का स्तर भी इतना निम्न कर दिया है कि अब मीर, ग़ालिब, इक़बाल, साहिर, फ़ैज़, फ़ानी जैसी बात उर्दू काव्य में नहीं पाई जाती; प्रेमचन्द (नवाब राय) जैसी दोधारी प्रतिभाओं का अकाल सा है ! दूसरी बात, उर्दू की पत्रिकाओं अब हद से ज़्यादा रोमन लिपि का प्रयोग इस बात को दर्शाता है कि उर्दू वास्तव में लाचारी के दौर से गुज़र रही है। 1870 में सर सय्यद द्वारा आरम्भ की हुई 'तहज़ीबुल अखलाक़' की मौजूदा शक्ल इसका प्रमाण है। उर्दू की बदहाली पर तब रोना आता है जब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में म्युज़ियोलॉजी विभाग तथा विभिन्न छात्रावासों के बाहर लगे बोर्डों पर ग़लत वर्तनी वाले नाम देखने को मिलते हैं !!!

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