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बोझ

संकोच होता है,
प्रशनों के उत्तर ढूँढने में,
हीनों की ओर,
सहायतार्थ जाने में..
जानें क्यूँ?
संकोच होता है,
गुरुजनों का आदर करने में,
क्यूँ  राह में पड़ा पत्थर,
हटाते नहीं हम!
क्यों भटकों को रास्ता,
दिखाते नहीं  हम!
ईश्वर की उपासना भी,
अब बोझ बन गयी है,
आखिर क्यूँ?
मनुजता आज फिर,
अजनबी हो गयी है,
आखिर क्यूँ?..
छात्रावास की चहारदीवारी में
यूँ ही ध्यय रहित घूमना,
क्या यही जीवन है?
परीक्षा में केवल उत्तीर्ण होना,
छात्र जीवन की एक संकीर्ण पूँजी,
क्या यही जीवन है?
स्मरण कर उस माता को,
जो घर बैठी है,
अकेली-बिलकुल अकेली,
खाना खा रही है... किन्तु,
गले से उतरता नहीं,
पुत्र के वियोग  में!
 और यही पुत्र आज,
अपनी ज़िन्दगी की बत्ती बनाकर,
लिए घूम रहा है,
दो उँगलियों के बीच में,
सिगरेट की शक्ल में,
जो बुझ रही है.
दफ्तर में केसा होगा..
वह असहाय पिता?
जो बॉस की फटकार सुनता है,
एक क्षण क्रोधित होकर..
मुस्कुराता है.. सोचते हुए..
बेटा भी एक दिन अफसर बनेगा,
किन्तु बेटा..
बेटा खो चूका है,
सारे अवसर, अफसर बन्ने के.
तल्लीन है टोपिकलेस बैटन में,
आखिर क्यूँ?
क्या इसलिए पैदा होते हम,
हम भाग्यवान??
हे ईश्वर !
क्यूँ तेरी इबादत भी बोझ लगती है?
कहीं हम स्वयं,
धरती पर 'बोझ' तो नहीं!!

नवेद अशरफ़ी
07 अगस्त 2006

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