मेरा यह संविधान,
पवित्र है मेरे विचारों सा.
सूरज का तेज,
वायु का वेग,
सब पानी भरतें हैं
आगे इस समंदर के.
किन्तु समंदर....
समंदर दूषित हो गया है,
गंगा- जमना में तैरते पापों से,
जो कियें हैं,
मैनें, तुमनें, और हम सब ने.
मानव का बदलता चिंतन,
दूषित कर रहा है,
गणतंत्र के इस ग्रन्थ को,
और मेरे विचारों को,
और पानी भर रहे,
सूरज के तेज,
वायु के वेग को,
जो दौड़ता है...
हमारी धमनियों में,
गन्दा लहू बनकर.
नवेद अशरफ़ी,
24 सितम्बर 2008
24 सितम्बर 2008
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