अभी अभी इधर से गुज़रे हैं
चम्पई हवा के लज़ीज़ झोंके
बहुत ख़ामोश,
तुम्हारी आँखों की ठण्डक लिए
कुछ अब्र उठे हैं
तेरे अश्कों का आबे हयात लेकर
वो अश्क़ जो उस रोज़
निकले थे तुम्हारी आंखों से
जब मैंने हँसकर कहा था,
"मैं ये दुनिया छोड़ जाऊं तो??"
जमना के उसी किनारे पर...
जहाँ दरिया ज़मी को चूमता है
रोज़ाना, बेतकल्लुफ़, बेलौस !!
उसी किनारे पर जहां बोसा लिया था मैंने
तेरी पेशानी का और मुक़द्दस हाथों का
तेरी पाकीज़ा पलके बोझल हो गयीं थी
हया की शफ़्फ़ाक़ शबनम से....
मगर उसी किनारे पर आज...
जमना में अजब सरगम है
मल्हार की मजलिस है...
गोया आज जमीन बरसेगी, आकाश नहीं !!!
ये सूरजमुखी के बसंती फूल
मुंतज़िर हैं मुद्दत से तेरी आमद के
ये इठलाती तितलियाँ, चहचहाती कोयलें
मुंतज़िम हैं तेरी तक़रीब-ए-दीद के
मुददत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए
मेरे महबूब यहीं रोज़ मिला कर मुझसे।
नवेद अशरफ़ी
06 अगस्त 2014
06 अगस्त 2014
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