अंग्रेज़ों ने भारत पर सैकड़ों बरस हुकूमत की. जब उनसे पूछा जाता कि आप लोग हिन्दोस्तान क्यों आये हैं तो उनका जवाब होता कि हम हिन्दोस्तान को तहज़ीब सिखाने आए हैं
! भारतीय उपमहाद्वीप की खूबियाँ और उत्कर्षगाथाएँ तब से ही शुरू हो जाती
हैं जब आदमियत के जद्दे अकबर (अर्थात परमपिता) हज़रत आदम अलैहिस्सलाम ने इस
सरज़मीन पर क़दम रखा. उनके बाद महात्मा बुद्ध, श्रीराम, ख्वाजा मुईनुद्दीन
चिश्ती, निज़ामुद्दीन औलिया, गुरु नानक, रानी लक्ष्मीबाई, बेग़म हज़रतमहल,
रज़िया सुल्तान, महात्मा गाँधी, मौलाना आज़ाद, बाबा आंबेडकर, रबीन्द्र नाथ
टैगोर, राजा राम मोहन रॉय, सय्यद अहमद, स्वामी विवेकानन्द, आर्यभट्ट, टीपू
सुल्तान जैसी महान आत्माओं ने अपनी मौजूदगी से इस पाक ज़मीन को इज्ज़त बख्शी;
इस पर कोई अँगरेज़ यह कहे कि हम आपको "तहजीबयाफ्ता" बनाने आए हैं तो इससे
उसका मकर, फरेब और कपट उजागर हो जाता है. अंग्रेज़ों के इस जुमले को भारत के
सुनहरे इतिहास के सापेक्ष रखने पर जुमला दो कौड़ी का जान पड़ता है लेकिन यदि
वर्तमान स्थिति में देखें तो बहुत सम्भावना है कि इस जुमले में जान पड़ती
नज़र आए.
आज़ादी से पहले सपना था कि एक शांतिपूर्ण, मर्यादाप्रिय,
अनुशासित, और सुकूनपरस्त भारत का निर्माण करेंगे. हम आज़ाद हुए मुल्क के
बंटवारे की कीमत पर. आज़ादी तो मिली लेकिन बरसों तक भय, आतंक और मायूसी ने
साथ नही छोड़ा. आज़ादी के पहले दिन का सूरज बहुत काला था. बक़ौल शायर फैज़ अहमद
फैज़:
यह दाग़-दाग़ उजाला यह शब-गज़ीदा सहर, वो इन्तेज़ार था जिसका यह वो सहर तो नहीं !
अंग्रेज़ों
ने हमसे हमारी दौलत तो लूटी ही, साथ ही हमारी तहज़ीब भी हमसे छीनकर ले गए.
फिर जो हुआ दुनिया ने देखा, हमने एक दूसरे के गले काटे, बहू-बेटियों की
आबरू लूटी, बच्चों को यतीम किया. साम्प्रदायिकता की आग में हम बुरी तरह
झुलस गए और गोडसे जैसों की एक बड़ी नस्ल "टिड्डी दल" की भांति मुल्क को
हरा-भरा होने से पहले ही उसकी हरयाली को गर्भ में ही खा गयी.
अभी कुछ
ही दिन गुज़रे हैं कि एक कट्टरपन्थी साम्प्रादायिक संस्था के एक नुमाइंदे
ने ऐतिहासिक अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय को "आतंकवाद की नर्सरी" घोषित कर
डाला ! यहाँ अंग्रेज़ों का वही जुमला याद आता है जिसका ज़िक्र इस लेख में
आरम्भ किया गया. चर्चिल जमात के अंग्रेज़ आज भी पूछ सकते हैं कि आख़िर क्या
ग़लत कहा था हमने उस दौर में ! तुम तो आज तक नहीं जान पाए कि इल्मी
दर्सगाहों और शिक्षा के मंदिरों को क्या इज्ज़त बख्शनी चाहिए ! तहज़ीब
तुम्हारे क़रीब से होकर गुज़री ही नहीं ! तुमको शऊर ही नहीं कि "इल्म" और
"दहशतगर्दी" में उतना ही फ़ासला है जितना कि राम और रावण में! वो अँगरेज़ इस
बात पर यकीन नहीं करेंगे कि हमारे हिन्दोस्तान में इल्म हासिल करने को सबसे
अव्वल जिहाद माना जाता है और इस कार्य को देवी सरस्वती और हज़रत मुहम्मद
(सल.) की अनुकम्पाओं का आधार भी.
यह तो रही नैतिक मूल्यों और तहज़ीब
की बात; अब "सेक्युलर" तथ्यों पर दृष्टि डालते हैं. सेक्युलर अर्थात
ग़ैर-आध्यात्मिक, दुनियावी और पदार्थवादी! जिस व्यक्ति ने यह नीच ब्यान दिया
है उससे यह तो सिद्ध होता ही है कि वह कितनी पाशविक और नीच प्रवृत्ति का
है, साथ ही यह भी पता चलता है कि उसने देश के महानतम ग्रन्थ अर्थात "भारतीय
संविधान" की किस तरह खिल्ली उड़ाई है. संविधान और संसद द्वारा पारित
कानूनों में जो बातें अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय के हवाले से लिखी गयीं
हैं, उनके हिसाब से यह बयान संविधान का घोर अपमान है. ऐसे लोगों में
"नैतिकता" क्या स्तर है, इसके बारे में सोचने का तो कोई तुक ही नहीं बनता
है, लेकिन अपनी हरकतों से देश के संविधान और उसकी साख को जो बट्टा ये लोग
लगा रहे हैं, उसके बारे देश की संवैधानिक संस्थाओं, न्यायालयों और सबसे
महत्वपूर्ण देश की जनता को सोचना चाहिए और इनसे सचेत रहना चाहिए !
भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची की प्रविष्टि 63
में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और दिल्ली
विश्वविद्यालय के साथ "राष्ट्रीय महत्व" का संस्थान घोषित किया गया है. जो
लोग "राष्ट्र" और "राष्ट्रीय" धरोहर का महत्व नहीं समझ सकते, वो लोग अलीगढ़
मुस्लिम विश्वविद्यालय जैसी दर्सगाहों का मोल भला क्यों समझने लगे ! जिन
लोगों के हाथ महात्मा गाँधी के क़त्ल के लिए बने हों, उनके नज़दीक राष्ट्र,
देशप्रेम, जन सदभाव, और "राष्ट्रीय महत्व" जैसे शब्द कुछ भी मायने नहीं रख
सकते. "राष्ट्रीय महत्व" और "आतंक की नर्सरी"- इन दो अवयवों को एक संस्थान
से जोड़ा गया है जो एक दूसरे के भिमुख हैं और एक दूसरे के "विद्रोही" भी.
इनमे से एक संविधान का "विचार" है तो दूसरा किसी भ्रष्ट सोच का "विकार" !!
एक "संविधान" है तो दूसरा "संविधानविद्रोही" !! देश की संवैधानिक संस्थाओं,
न्यायालयों, और समझदार जनता को अब स्पष्ट कर लेना चाहिए कोई भी संविधान के
विरुद्ध कुछ भी बोल कर चला जाता है और देश के कान पर जूं तक नहीं रेंगती !
"मीडिया-महान" भी सोता रहता है ! इसी प्रदूषित मानसिकता को जेएनयू जैसा
संस्कृति और आधुनिकता का समागम "नक्सली अड्डा" नज़र आता है !
संविधान
सर्वोपरि है जिसकी आत्मा के अनुरूप ही देश की विधायिका कानून बनाती है.
अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय का वजूद इसी तरह के एक क़ानून से है जिसे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अधिनियम-1920 कहते हैं. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अधिनियम की धारा 13 खण्ड (1) कहती है:
भारत के [माननीय] राष्ट्रपति अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय के कुलाध्यक्ष (विज़िटर) होंगे.
इसी अधिनियम की धारा 15 कहती है:
उत्तर प्रदेश राज्य के [माननीय] राज्यपाल अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के मुख्याधीष्ठाता (चीफ़ रेक्टर) होंगे.
इसके अलावा भारतीय संसद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) और मानव संसाधन एवम् विकास मंत्रालय
द्वारा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय सहित देश के अन्य केन्द्रीय
विश्वविद्यालयों को हर तरह का पोषण प्रदान करता है जिसमे धन-आपूर्ति सबसे
महत्वपूर्ण है.
उपरोक्त कानूनी दस्तावेजों और मानदंडों से यह निचोड़
निकलता है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय में जो भी गतिविधियाँ अंजाम दी जा
रहीं है वे:
- राज्यपोषित हैं, अर्थात उनके विकास, वृद्धि और उत्कर्ष के लिए राज्य उनको आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराता है.
- प्रदेश के [माननीय] राज्यपाल की सीधी सरपरस्ती में अंजाम दी जा रही हैं.
- देश के महामहिम [माननीय] राष्ट्रपति के "महामार्गदर्शन" में पूर्ण की जाती हैं.
अब
सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय में किस तरह की
गतिविधियाँ अन्जाम दी जा रही हैं ? इसका अंदाजा भद्रजनों को माननीय
राष्ट्रपति श्री प्रणब मुख़र्जी के दिसम्बर 2013 के विश्विद्यालय दौरे से हो
जाएगा जिसमें उन्होंने अखिल भारतीय सामाजिक विज्ञान कांग्रेस के राष्ट्रीय
अधिवेशन का उद्घाटन किया था. कांग्रेस में देश-विदेश के सामाजिक विज्ञानी,
डॉक्टर, इंजिनियर, विचारक, वैज्ञानिक आदि इसलिए तशरीफ़ लाए थे कि भारतीय
समाज को किस तरह संवारा जाये. उनका उद्देश्य वो नहीं था जो संघ जैसे
समाज-संहारक और असामाजिक तत्वों का होता है ! इससे पहले पूर्व राष्ट्रपति
श्री एपीजे अब्दुल कलाम (जिन्हें अभी उनके देहावसान के बाद "राष्ट्रवादी"
होने का सर्टिफिकेट भी मिल गया है) अमुवि तशरीफ़ लाए थे और छात्र-छात्राओं
को उनकी विशेष गतिविधियां पूर्ण करने पर उनको मुबारकबाद दे गये, उनको
डिग्रियाँ बांटी और सोने पे सुहागा यह कि "सोने के मैडल" भी दे गए ! मानो
कह गए हों कि अपने कारनामों में और ज़्यादा तरक्की करो. पूरा देश श्री अज़ीज़
कुरैशी को भली भांति जानता है. मिज़ोरम, उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश के
राज्यपाल पद पर सेवाएं दे चुके हैं और गौवध के क़तई समर्थक नहीं हैं; वो भी
अमुवि में कई अवसरों पर छात्र-छात्राओं को आशीर्वाद दे चुके हैं!
-देश
के संवैधानिक पदाधिकारी (जो देश में सबसे अधिक माननीय हैं) अमुवि परिसर
में आकर जिन गतिविधियों को मान देते हैं, वो गतिविधियाँ किसी सड़कछाप को
"आतंकवाद" नज़र आती हैं !!
-जिन संस्थानों को संविधान "राष्ट्रीय महत्व" का दर्जा देता है, वो सरफिरों को "आतंक के अड्डे" और "नक्सली अड्डे" नज़र आते हैं !!
-जिन
पर देश की करोड़ों की कमाई इस आशा से बहाई जा रही है ताकि इस देश का युवा
कल एक सुनहरा युग देखे, नए समाज का सृजन करे, शिक्षा से आदर्श, प्रेम और
इन्सानियत के गुर सीखे, वो मासूम नौजवान कट्टरपंथियों को आतंकी नज़र आते हैं
!!
गहरा विरोधाभास है, संविधान की आत्मा और इस दिवालिएपन में. काले
और सफ़ेद में फ़र्क करना सीखना होगा. इस ज़हर से निपटने के लिए पढ़ी-लिखी और
सजग जनता का जागना बहुत ज़रूरी है क्यूंकि कल कोई महात्मा गाँधी दोबारा
नोआखली में नज़र नही आएगा.
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