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एक तस्वीर को देखकर

आशाओं के गगन में,
प्रकाश ढून्ढता हूँ.
सागर की हर लहर में,
विश्वास देखता हूँ १

कभी इकबाल का मैं शाहीन,
कभी मैथिली का चेतक,
मैं जब भी देखता हूँ,
बस गंतव्य देखता हूँ २

डूबी जो मेरी नय्या,
तो कुछ भय नहीं है,
अब इन परों के बल पर,
मैं भुवन को देखता हूँ. ३

यह कठिनाइयों का साग़र,
जो हुआ कभी न मेरा,
प्रतिकूलता का साथी,
एक पत्थर भी देखता हूँ. ४

चमकता है जो दिवाकर,
वह ध्यय नहीं है मेरा,
नक्षत्रों की इस सभा में,
मैं अनंत देखता हूँ. ५

यह अज्ञानता का साग़र,
कहीं छू ना जाये मुझको,
क़दमों में रखके पत्थर,
मैं परवाज़ देखता हूँ. ६

 नवेद अशरफ़ी
11 नवम्बर 2008

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