चाँद विक्षिप्त है,
धरती के लिए,
अनायास ही घूमता है.
किन्तु इसी चाँद को,
एक चकोर भी देखता है.
निराकार प्रभु भी,
भक्तो की दृष्टि में,
साकार जन पड़ता है.
कही पुष्प लैला,
और भंवरा मजनू है.
तो कही प्रकाश के लिए,
कीट क्षणभंगुर है.
ब्रहमांड की उत्पत्ति भी,
कभी- कभी विचित्र....
किन्तु लगती है सार्थक.
यह जुगनुओ की टोली,
और ये हिरन युग्म,
ये तितलियों के झुरमुट,
ये सूफी, ये संत,
ये धरती और सूरज,
अनायास ही खिंचे जाते हैं,
किसी की ओर,
एक असीमित बल द्वारा,
जो पर्याय है....
इस सृष्टि का,
छवि और प्रकाश का,
सूक्ष्म और स्थूल का,
विधि के विधान का,
और हम सब का.
क्या है वो बल ?
सुनते हैं.....
ढाई अक्षर से बना है..
अत्यंत सरल है,
बिलकुल मेरी माँ सरिस,
कहीं 'वात्सल्य' तो नहीं?
हाँ! हाँ! इसी का रूप है,
...........वह 'प्रेम' है.
नवेद अशरफ़ी, 13 जनवरी 2004

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